नदियां हमारे जनजीवन से जुड़ा वह अहम आधार हैं, जिनके बिना जीने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते. सनातनी संस्कृति में नदियों को मां मानकर पूजे जाने की परंपरा रही है, जिसका कारण वस्तुतः नदियों के संरक्षण की प्रवृति ही रही होगी. लेकिन आज इसके विपरीत नदियों का हाल बेहाल है. देश की बड़ी और प्रमुख नदियां जैसे गंगा, यमुना, नर्मदा आदि प्रदूषण की मार झेलते हुए अपने स्वाभाविक बहाव को बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं, तो वही देश की छोटी नदियां की दशा तो ओर अधिक गंभीर है. अतिक्रमण, प्रदूषण, क्लाइमेट चेंज, भूजल का घटना आदि समस्याओं से आज देश की छोटी नदियां सर्वाधिक त्रस्त हैं. ये छोटी छोटी नदियां बड़ी नदियों की धमनियों के समान हैं, इसलिए इनके संरक्षण की आवश्यकता सबसे अधिक है.
देश की सबसे छोटी नदी है अरवरी
बात यदि छोटी नदियों के संरक्षण की हो और अरवरी का नाम नहीं आये, यह संभव नहीं है. राजस्थान में बहने वाली अरवरी देश की सबसे छोटी नदी है, जो मात्र 90 किमी के क्षेत्र में प्रवाहित होती है, लेकिन आंकड़ों से हटकर यह नदी चर्चा का विषय बनी अपने पुनर्जीवन प्रयास के कारण. अरवरी देश की एक ऐसी नदी है जो बिल्कुल मृत हो चुकी थी, लेकिन सामुदायिक रूप से किये गए प्रयासों और संकल्पित भावों के कारण आज यह नदी पुनर्जीवन प्राप्त कर बह रही है.
ऐसा हुआ अरवरी का जन्म
बात यदि अरवरी के भोगौलिक परिप्रेक्ष्य की करें तो राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का की पहाड़ियों के बीच थानागाजी के पास सकरा बांध में अरवरी नदी का उद्गम होता है, इसका उत्तरी जलग्रहण क्षेत्र कंकड़ की ढाणी के आसपास है. नदी के दो प्राकृतिक जल स्त्रोत हैं, जिनमें से एक भैरुदेव सार्वजनिक वन्यजीव अभयारण्य से ग्राम भवता कालियाल (भूरियावास) के पास और दूसरा स्रोत अमका और जोधुला के पास से निकलता है. एक तीसरी धारा है जो दूसरी धारा के काफी पास बहती है लेकिन थोड़ी दूरी पर ही वह भूमिगत हो जाती है. बाकी बची दो धाराएँ अजबगढ़-प्रतापगढ़ के पास पलसाना के पहाड नामक स्थान पर मिलती हैं, जहां प्रवाहित नदी को अरवरी के नाम से जाना जाता है. अरवरी विभिन्न अन्य सहायकों और धाराओं के साथ मिलकर आगे बढती है और अंततः उत्तांग नदी (गंभीर नदी) के रूप में प्रयागराज के पास यमुना में विलीन हो जाती है.
अरवरी के मृत होने की कहानी
कभी बारहमासी और सघन वनक्षेत्र से घिरी हुयी अरवरी ने बढती आबादी की मार झेली. जैसे जैसे तटीय क्षेत्रों की जनसंख्या बढ़ने लगी, पेयजल और सिंचाई आदि आवश्यकताओं के लिए जलदोहन भी बढ़ा. वर्ष 1960 के आस पास नदी के कैचमेंट क्षेत्र में संगमरमर की खुदाई का काम शुरू किया गया, जिसके लिए खदानें खोदी गयी और धीरे धीरे जलसंकट बढ़ता चला गया. 60 के बाद के दशकों में नदी पूरी तरह सूख गयी और लोगों गाँव छोड़ने पर मजबूर होने लगे.
ऐसे मिला अरवरी को पुनर्जीवन
वर्ष 1986 से नदी को पुनर्जीवन देने के प्रयासों का श्रीगणेश किया गया "तरुण भारत संघ" के द्वारा और जलपुरुष राजेन्द्र सिंह के चलाये जागरूकता अभियान ने अरवरी को वापस लाने का जिम्मा उठाया. 90 के दशक में तरुण भारत संघ ने भनोट-कोलयल गांव के लोगों के साथ मिलकर नदी को पुनर्जीवन देने के लिए नदी के आस पास जोहड़ बनवाने का काम शुरू किया. गांव वालों की सहायता से छोटे छोटे ढेरों ताल पहाड़ियों के नीचे बनाये गए. इसका नतोजा हुआ कि बरसात में ये सभी जलयुक्त हो गए और भूजल धीरे धीरे रिचार्ज होने लगा.
अरवरी नदी संसद - अपने आप में अनूठा एक जनतांत्रिक प्रयोग
अक्टूबर, 1990 में पहली बार नदी में पानी बहता दिखाई दिया, जिससे नदी संरक्षण का कार्य कर रहे लोगों का हौंसला बुलंद हुआ और आगे आने वाले कुछ वर्षों में अरवरी कलकल बहने लगी. 1995 तक नदी को पूरी तरह से जीवनदान मिल गया और सामुदायिक प्रयासों की जीत हुयी. अरवरी युहीं सदानीरा बनी रहे, इसके लिए देश में पहली बार नदी संसद का निर्माण किया गया, जिसमें अरवरी के किनारे बसे सभी गांवों को शामिल किया गया. 26 जनवरी, 1999 में बनी अरवरी नदी संसद के जरिये नदी को संरक्षित रखने के लिए फसल चक्र में परिवर्तन, सिंचाई व्यवस्था के नियम, गहरी बोरिंग पर रोक, पानी के अतिदोहन को रोकने के लिए बड़े उद्योग धंधों को गांव में नहीं जमने देना, नदी के दोनों किनारों पर वनक्षेत्र विकसित करना आदि का निश्चय किया गया, जो आज तक जारी है.