किसी भी कार्ययोजना के निर्माण से पहले नीति बनानी चाहिए। नीतिगत तथ्य, एक तरह से स्पष्ट मार्गदर्शी सिद्धांत होते हैं। एक बार दृष्टि साफ हो जाये, तो आगे विवाद होने की गुंजाइश कम हो जाती है। इन सिद्धांतों के आलोक में ही कार्ययोजना का निर्माण किया जाना चाहिए। कार्ययोजना निर्माताओं और क्रियान्वयन करने वालों को किसी भी परिस्थिति में तय सिद्धांतों की पालना करनी चाहिए। ऐसा करने से कार्ययोजना हमेशा अनुकूल परिणाम लाने वाली होती है। अतः मध्य प्रदेश शासन को चाहिए कि नर्मदा कार्ययोजना बनाने से पहले ’नमामि नर्मदे संस्कार नीति’ अथवा मध्य प्रदेश की सभी नदियों को लेकर ’राज्य नदी संस्कार नीति’ बनाये। नीति, नदी के साथ हमारा ऐसा व्यवहार-संस्कार बताने वाली हो, जिससे नर्मदा की समृद्धि सुनिश्चित हो सके। इस नदी नीति और इसकी पालना परिदृश्य की समीक्षा के लिए हर तीसरे वर्ष नर्मदा किनारे एक पांच दिवसीय नर्मदा कुंभ लगाने का चलन शुरु किए जाना अच्छा होगा।
नीतिगत बात यह है कि अविरलता सुनिश्चित के बगैर, किसी भी नदी की निर्मलता सुनिश्चित करने का दावा करना एक छलावा मात्र है। अविरलता का मतलब होता है, नदी में पर्याप्त जल और इतने प्रवाह की सुनिश्चितता कि स्वयं को खुद निर्मल करते रहने की नदी प्रवाह क्षमता साल के बारह मास बनी रहे। अनुभव ये हैं कि ऐसी अविरलता सुनिश्चित किए बगैर निर्मलता के तकनीकी प्रयास सिर्फ और सिर्फ कर्ज़ और खर्च बढ़ाने वाले साबित हुए हैं। ऐसे प्रयासों से दीर्घकालिक निर्मलता की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अविरलता सुनिश्चित करने के लिए मध्य प्रदेश शासन से निम्नलिखित कदम अपेक्षित हैं:
1. नर्मदा प्रवाह मार्ग और नदी भूमि में नई बाधायें न खड़ी की जायें अर्थात शासन सुनिश्चित करे कि नर्मदा और इसकी सहायक नदियों पर भविष्य में कोई बांध, बैराज अथवा तटबंध परियोजना नहीं बनाई जायेगी।
2. नर्मदा प्रवाह मार्ग के सभी प्रमुख स्थानों पर वर्ष के किस माह में न्यूनतम प्रवाह कितना रहना चाहिए; यह सुनिश्चित कर इसकी पालना का तंत्र बनाया जाना जाये।
3. नदी जोड़ परियोजना, नदी की जीवंत प्रणाली को नष्ट कर उसके प्रवाह की मात्रा और विशेष गुणवत्ता.. दोनो को नुकसान पहुँचाने वाली साबित होती है। इसके कारण समुद्र के खारेपन और तापमान को संतुलित रखने में नदी की जो भूमिका है; वह भी बाधित होती है। अतः कम पानी इलाकों को पानी मुहैया कराने के लिए इससे कम खर्च के छोटे स्वावलंबी जल संचयन और संरक्षण ढांचों के निर्माण तथा उपयोग किए पानी के पुर्नोपयोग की परियोजनाओं पर काम शुरु हो।
4. नदी भूमि का चिन्हीकरण कर इसे अधिसूचित किया जाये। यह सुनिश्चित हो कि नदी भूमि का उपयोग सिर्फ और सिर्फ नदी को समृद्ध करने वाली गतिविधियों के लिए होगा। नदी भूमि पर पक्के निर्माण की अनुमति कभी न दी जाये। नदी भूमि का भू-उपयोग बदलने की छूट किसी को न हो।
5. नर्मदा की मुख्य धारा के प्रवाह मार्ग के पांच किलोमीटर और सहायक नदियों के प्रवाह मार्ग के दो किलोमीटर और उप-सहायक नदियों के प्रवाह मार्ग के एक किलोमीटर के दायरे में शीतल पेय, शराब, बोतलबंद पानी जैसी ज्यादा पानी खींचने वाली किसी भी औद्योगिक इकाई को अनुमति न हो।
6. उक्त दायरे मे पहले से मौजूद सभी प्रकार की व्यावसायिक और औद्योगिक इकाइयों को बाध्य करें कि वे जिस इलाके से जितना और जैसा भूजल अथवा सतही जल उपयोग करती हैं, अपने संयंत्र के दस किलोमीटर के दायरे में उतना और वैसा पानी अथवा वर्षाजल संचित कर धरती को वापस लौटायें।
7. रेत एवम् अन्य खनन नर्मदा के लिए बड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं। नर्मदा तथा इसकी सहायक नदियों के मूल स्त्रोत स्थान पर भू-खनन तथा भूजल का व्यावसायिक शोषण पूरी तरह प्रतिबंधित हो। मूल स्त्रोत स्थान के कितने किलोमीटर के दायरे में यह प्रतिबंध हो, यह स्थानीय स्थितिनुसार तय हो।
8. नर्मदा प्रवाह मार्ग के पांच किलोमीटर और सहायक नदियों के प्रवाह मार्ग के दो किलोमीटर के दायरे में भू-खनन कब और अधिकतम कितनी गहराई तक किया जा सकता है; शासन, इस पर नीतिगत निर्णय ले और उसकी पालना सुनिश्चित करे।
9. नर्मदा की सभी सहायक धाराओं, उनसे जुड़ी उप-धाराओं तथा उनके मूल स्त्रोतों में पर्याप्त जल होने से ही नर्मदा का प्रवाह बढ़ेगा। प्रवाह ठहरता है, तो नदी में नुकसानदेह वनस्पतियां और उनके कारण जल व वायु प्रदूषण बढ़ता है। प्रवाह बढ़ने से ही नदी में नुकसानदेह वनस्पतियों के कारण हो रहा रासायनिक प्रदूषण घटेगा। इसे नियंत्रित करने के लिए भी नदी में प्रवाह का बढ़ना ज़रूरी है। अतः ग्राम पंचायतों को प्रेरित किया जाये कि वह अपनी-अपनी ग्रामसभाओं के साथ मिलकर पंचायत क्षेत्रफल में आने वाली ऐसे प्राकृतिक प्रवाहों और उनके स्त्रोतों को दुरुस्त करने की कार्ययोजना बनायें। बारिश आने से पहले पुराने तालाबों की मरम्मत, छोटी-छोटी नदियों के मोड़ों पर छोटे-छोटे कुण्ड खोदना, नर्मदा में उग आई अजोला घास जैसी नुकसानदेह वनस्पति, कचरा हटाना जैसे नदी प्रवाह के अनुकूल कार्य इस कार्ययोजना का हिस्सा हो सकते है। ये सभी काम मनरेगा के तहत् करने की छूट हो। नर्मदा सेवा समितियां इसमें सलाह, सहयोग और निगरानी की भूमिका निभायें।
10. बारिश आने पर नदी किनारे बरगद, पीपल, पाकड़, जामुन, कदम्ब जैसे पानी को अपनी जड़ों में पकड़कर रखने वाले पेड़ तथा मिट्टी को बांधकर रखने वाली घास तथा चारा प्रजाति की उपयोगी वनस्पतियों के बीज फेंकने का कार्य स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों के जिम्मे डाला जाये। इसके लिए उन्हे अच्छे बीज मुहैया कराये जायें। इससे मिट्टी का कटान व नमी रोकने के साथ-साथ वन्य जीव जंतुओं तथा मवेशियों का संरक्षण होगा।
11. ग्रामसभा और स्थानीय नर्मदा सेवा समिति के साथ मिलकर प्रत्येक पंचायत भूजल का वह स्तर तय करे, जिसके नीचे बोर करने की अनुमति सिर्फ और सिर्फ लगातार पांच साला अकाल में ही होगी।
12. यदि ग्रामीण अपनी आजीविका और समस्त सपनों की पूर्ति के लिए पूरी तरह खेती और बागवानी पर निर्भर रहा, तो भूजल के अतिदोहन और कृत्रिम रसायनों के बढ़ते उपयोग को हतोत्साहित करना मुश्किल होगा। बेहतर है कि म. प्र. शासन नर्मदा बेसिन में पारंपरिक कारीगरी आधारित प्रकृति अनुकूल ग्रामोद्योगों की ऐसी सुनिश्चित योजना तैयार करे, जिसमें ग्रामीणों की आय बढ़े। ग्राम स्तर पर उत्पाद बिक्री की गारंटी इस योजना की सफलता की पहली शर्त की तरह है। इससे पलायन रुकेगा, किसानों पर कर्ज घटेगा, आत्महत्यायें घटेंगी और धरती का शोषण कम होगा। इन सभी कदमों से अंततः नर्मदा समृद्ध ही होगी।
13. सिद्धांत है कि आसमान से बरसने वाले जल में से 65 प्रतिशत नदियों में बहने दें और 35 प्रतिशत को पकड़कर हम धरती की तिजोरी में डाल दें। इस दृष्टि से नगर नियोजक देखें कि पुराने नगरों में देखें कि कितनी प्रतिशत भूमि को हरित क्षेत्र तथा जल क्षेत्र घोषित करना संभव है। नये नगर, औद्योगिक/व्यावसायिक/आवासीय परियोजना के लिए इस नीति का निर्माण जरूरी है कि वे अपने कुल क्षेत्रफल में कम से कम 35 प्रतिशत हिस्से को जलक्षेत्र, हरित क्षेत्र व कचरा डंप एरिया के रूप में आरक्षित करें। ये आरक्षित क्षेत्र कहां हों और कहां न हों; किस रूप में हों और किस रूप में न हों; नीति में इसकी स्पष्टता भी बेहद ज़रूरी है।
14. शासन अपने भूजल कानूनों और उनके क्रियान्वयन परिदृश्य की समीक्षा करे।
15. भूजल ही नहीं, नदी को समृद्ध करने वाले सभी आदेशों, नियमों और कानूनों की पालना सुनिश्चित करने के लिए शासन, प्रशासन, स्थानीय निकायों और पंचायतो के साथ मिलकर एक कुशल, अधिकार सम्पन्न तथा जवाबदेह जन-निगरानी तंत्र विकसित करे।
1. औद्योगिक अवजल, नगरीय ठोस कचरा, मल, खनन और कृषि में कृत्रिम रसायन - ये पांच प्रमुख कारक नर्मदा में प्रदूषण के विशेष जिम्मेदार है। मूर्ति विसर्जन, शवदाह, नदी तट पर खुले में शौच आदि नित्यकर्म हैं, जो नदी को प्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष रूप से प्रदूषित करते हैं। इनकी रोकथाम के लिए कचरा प्रबंधन नीति का तय होना जरूरी है।
2. नीति यह है कि कचरा, कैंसर की तरह है। जिस तरह से कैंसर का इलाज उसके मूल स्त्रोत पर किया जाता है। कचरा निष्पादन का मूल सिद्धांत यही है कि उसका निष्पादन उसके मूल स्त्रोत पर ही हो। जहां यह संभव न हो, वहां कचरा उपजने और निष्पादन के बीच की दूरी यथासंभव कम से कम हो। यह सुनिश्चित करके ही सर्वश्रेष्ठ कचरा निष्पादन संभव है। इसकी पालना कैसे हो? इस पर विचार करके ही कार्ययोजना बने।
3. मल को उसके पैदा होने के स्थान से ढोकर ले जाना और फिर किसी नदी के किनारे मल शोधन संयंत्र लगाकर निष्पादित करना, निर्मलता के मूल सिद्वांत के विरुद्ध है। अतः सीवेज पाइप आधारित वर्तमान मल शोधन प्रणाली को हतोत्साहित किया जाये। इसकी जगह प्रकृति अनुकूल शौचालयों को प्रोत्साहित किया जाये।
प्रकृति अनुकूल मल शोधन संयंत्र का मतलब बिना बिजली, बिना रसायन और बिना अधिक पानी मल निष्पादन की तकनीक होता है। आई आई टी, कानपुर द्वारा तैयार हरित शौचालय, डीआरडीओ द्वारा तैयार जीवाणु छन्नी युक्त शौचालय, त्रिकुण्डीय प्रणाली युक्त पारंपरिक शौचालय हनी शकर्स, बंगलुरु का प्रयोग, नासिक म्युनिसपलिटी द्वारा उपयोग में लाई जा रही बायो सेनिटाइजर तकनीक युक्त मल निष्पादन प्रणाली उनके इलाकों में प्रकृति अनुकूल साबित हुई हैं। इनमें जो मध्य प्रदेश की प्रकृति के अनुकूल हों, उन्हे अपनाना चाहिए।
4. जिन नगरों में पाइप लाइने बिछ चुकी हैं, वहां नदी किनारे एक मल शोधन संयत्र लगाने की बजाय, हर कॉलोनी में उचित ढाल देखकर छोटे-छोटे प्रकृति अनुकूल मल शोधन संयंत्र लगाये जायें। शोधित जल का बागवानी, शौचालयों आदि में पुर्नोपयोग की व्यवस्था बने।
5. जिन नगरों में सीवेज पाइप नहीं बिछे हैं, वहां प्राथमिकता के तौर पर हर घर में त्रिकुण्डीय प्रणाली टैंक आधारित शौचालय को प्रोत्साहित करें। सावधानी रहे कि स्नानघर का साबुन, शैंपू, वाशिंग पाउडर युक्त पानी इन टैंकों में न जाये।
6. जिन मोहल्लों में व्यक्तिगत स्तर पर टैंक बनाना किसी भी हालत में संभव न हो, वहां मोहल्ले के पार्क में एक बड़ा त्रिकुण्डीय टैंक बनाया जाये। सभी घरों के शौचालय इस टैंक से जोड़ दिए जायें। नियमित समय अंतराल पश्चात् टैंकरों के जरिए मल निकालकर दूर खेतों में फैलाकर इनसे खाद तैयार की सकती है।
7. सभी प्रस्तावित आवासीय/व्यावसायिक परियोजनाओं के लिए आवश्यक हो कि वे अपने मल का निष्पादन खुद अपने परिसर के भीतर करें। मौजूदा तकनीकों के जरिए यह संभव भी है और परियोजनाओं के लिए आर्थिक रूप से लाभकारी भी।
8. अभी हमसे शहरी मल संभाले नहीं संभल रहा; दूसरी ओर हम घर-घर शौचालयों के जरिए ग्रामीण मल का एक ऐसा ढांचागत तंत्र खड़ा कर रहे हैं, जो आगे चलकर गांव-गांव सीवेज पाइप और मल शोधन संयंत्र की मांग करने लाने वाला साबित होगा। सोचिए, यदि हम ग्रामीण मल का शोधन न कर पाये, तो आगे चलकर गांवों के नजदीक के तालाबों, नदियों और भूजल का क्या होगा? इसके साथ ही गांव-गांव पानी की पाइपलाइन, जलापूर्ति के निजीकरण और पानी-सीवेज के बिल लाने वाला और गांव के गरीब की जेब से धन उगाहने वाला भी।
9. बंद टैंक में शौच का दूसरा पहलू यह है, वहां शौच को निष्पादित होने में तीन महीने लगते हैं, वहीं 'टट्टी पर मिट्टी' सिद्धांत की पालना के साथ खुले में किया शौच सामान्य तापमान वाले इलाकों में 72 घंटे में कम्पोस्ट में बदल जाता है। हमारे बीमार होने के कारणों में खुले में शौच उतना बड़ा कारण नहीं है, जितना बड़ा कारण हमारे मल शोधन संयंत्रों की नाकामयाबी है। चौथी बात यह है कि खुले में शौच के जरिए एक इंसान साल भर में करीब साढे़ चार किलो जैविक खाद हमारे खेतों में पहुंचाता है। भारत की ग्रामीण आबादी की संख्या से गुणा करें, तो समझ में आयेगा कि शौचालय को टैंकों में बद करके जैविक खाद की कितनी बड़ी मात्रा खोने की तैयारी कर रहे हैं। नर्मदा निर्मलता के लिहाज से भी इन सभी तथ्यों पर विचार जरूरी है।
10. मेरा विचार यह है कि नगरों तथा कस्बाई हो चुके गांवों में शौचालय निर्माण ज़रूरी है। यह जरूर हो, लेकिन जिन गांवों के आसपास अभी भी जंगल, मैदान और झाड़ियां मौजूद हैं; जहां बिना शौचालय कोई दिक्कत नहीं हैं; कृपा करके उन गांवों को 'ओडीएफ' बनाने की जिद्द छोड़ दें। मां नर्मदा और हम सभी के लिए यही अच्छा होगा।
11. अविरलता, प्रदूषण मुक्ति, नदी-इंसान-अन्य जीवों की सेहत की दृष्टि से जैविक खेती को आगे बढ़ाने की घोषणा अच्छी है। किसान जैविक खेती करे; इसकी दृष्टि से जैविक कृषि के साथ जैविक बागवानी युक्त मिश्रित खेती को प्रोत्साहित करना बेहतर होगा। इसके लिए ग्राम पंचायत स्तर पर फसल भण्डारण की क्षमता का विकास तथा खेत पर ही उत्पादों की बिक्री सुनिश्चित करने का ईमानदार तंत्र खड़ा करके ही ऐसा किया जा सकता है। जैविक उत्पाद प्रमाणीकरण प्रक्रिया को किसान की पहुंच तक बनाना जरूरी होगा। कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों/कीटनाशकों की कीमतों को बढ़ाते जाना और जैविक खाद, जैविक कीटनाशक, चारागाह, मवेशी पालन आदि को प्रोत्साहित करते जाना जैविक कृषि में सहायक कदम होगा।
12. ठोस कचरा, नर्मदा के लिए एक बड़ी चुनौती है। जिन नगर-निगमों, नगरपालिकाओं अथवा ज़िला पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में कोई भी नदी बहती है, वे सुनिश्चित करें कि नदी भूमि से कम से कम एक किलोमीटर की दायरे में कचरा डंप एरिया नहीं बनाया जायेगा। जैविक-अजैविक कचरा अलग करना सुनिश्चित होगा। जैविक का कम्पोस्ट बनाने वाले मोहल्लों को प्रोत्साहित किया जायेगा। अजैविक का निष्पादन करने की सर्वश्रेष्ठ तकनीक उपलब्ध कराई जायेगी।
13. अस्पतालों का जैविक-अजैविक कचरा काफी नुकसानदेह होता है। सभी निजी व सरकारी अस्पतालों के लिए जरूरी होगा कि वे उपने परिसर में पैदा होने वाले जैविक-अजैविक कचरे का निष्पादन अपने परिसर के भीतर खुद करने का इंतजाम करें।
14. इलेक्ट्रॉनिक कचरा, निष्पादन काफी जहरीला और दीर्घकालिक असर डालने वाला होता है। देखा गया कि अक्सर इसे जलाकर अथवा धरती के भीतर दबाकर नष्ट करने की कोशिश होती है। इसके उचित निष्पादन हेतु कड़ी निगरानी जरूरी है।
15. औद्योगिक संगठनों के साथ मिलकर औद्योगिक कचरा निष्पादन में उद्योगों की अरुचि के कारणों की तलाश कर आवश्यक शोध, तकनीक तथा मदद मुहैया कराई जाये। सख्ती और निगरानी तंत्र का निर्माण साथ-साथ हो।
16. भारत के राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अभी 'प्रदूषण नियंत्रण में हैं' का प्रमाणपत्र बांटने वाले संस्थान बनकर रह गये हैं। इन्हे इस छवि से बाहर निकालने के लिए अधिक अधिकार और अधिक जवाबदेही देने तथा ढांचागत बदलाव की जरूरत है।
17. मूर्ति निर्माण में कृत्रिम रसायनों का प्रयोग पूरी तरह प्रतिबंधित हो। कृत्रिम सिंदूर, विशेष नुकसानदेह तत्व है। इसके निर्माण पर रोक लगे। कोई धर्मग्रंथ मूर्ति के नदी विसर्जन को अनिवार्य नहीं बताता है। मूर्ति के जल विसर्जन की बात अवश्य कही गई है। अतः धर्माचार्यों के साथ पहला प्रयास मूर्ति के भू-विसर्जन का हो। दूसरा प्रयास नदी से अन्यत्र जल-विसर्जन की सहमति बनाने का हो।
(राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रूड़की द्वारा हिंदी सप्ताह - 2020 के दौरान प्रकाशित पत्रिका 'प्रवाहिनी' में प्रकाशित तकनीकी लेखों की श्रेणी में प्रथम पुरस्कार प्राप्त लेख)