हम सभी अलग अलग गांवों से आते हैं, जहां ताल-तलैया, छोटी छोटी नदियां आदि हुआ करती थी। अकेले लखनऊ में ही पाँच नदियां हैं, जिनमें गोमती, कुकरैल, बेहता, बक्शी का तालाब स्थित रैठ नदी और कादू नदी प्रमुख हैं। यानि हम सभी को कहीं न कहीं अपने गांव की वो छोटी छोटी नदियां, ताल-तलैया याद होते हैं, जो कभी स्वच्छ व अविरल हुआ करते थे लेकिन अब धीरे धीरे वह सभी हमारे राजस्व रिकॉर्ड से गायब होते जा रहे हैं। बहुत से जल निकाय आज मरने की कगार पर हैं और इन सभी के मूल में अनियोजित विकास है जो लगातार किया जा रहा है।
जो कुछ छोटे तालाब आज बचे हुए हैं, उनकी भी स्थिति ठीक नहीं है और जैसे जैसे आबादी बढ़ती जा रही है हमारे सामने पेयजल की कीलात, सिंचाई साधनों की उपलब्धता की कमी देखने को मिल रही है। पानी का संकट आज लगातार गहराता जा रहा है, हमें यह समझना होगा कि हमारी छोटी नदियों से जुड़ी झील, वेटलैंडस, तालाब, ताल इत्यादि हैं, यानि एक कनेक्टेड लैंडस्केप और कनेक्टेड इकोसिस्टम की जो शृंखला है, उसका सुचारु रहना भी उतना ही जरूरी है, जितना नदियों का निरंतर बहना।
हमारी छोटी नदियां भूजल और वर्षा जल पर ही निर्भर होती हैं लेकिन वर्षा जल तो मात्र 18-19 दिन ही मानसून सत्र में मिल पाता है। बाकी समय पानी कहां से आता है? यदि लंबे अंतराल के सूखे को छोड़ दें तो भूजल स्तर में इतनी तेजी से गिरावट आ रही है कि पहले छोटी नदियां सूखती हैं और इनके सूखने से समस्त नदी कैचमेंट क्षेत्र में जो बड़ी और मध्यमवर्ती नदियां हैं उनके प्रवाह, वेग और समस्त स्टीम डिस्चार्ज में जो फर्क आता है वह आज हम स्पष्ट देख पा रहे हैं। अकेले गंगा बेसिन की ही बात करें तो बेसिन के कुल सतही और भूजल भंडार में से लगभग 64% भूजल भंडार का है। गंगा बेसिन का कुल 3 लाख, 60 हजार वर्ग किमी सिंचित एरिया है, जो पूरे गंगा बेसिन का करीब 57 प्रतिशत है, यह हिस्सा हमारे गंगा बेसिन और उसकी सहायक नदियों से आता है। लेकिन इस पूरे परिद्रश्य में भूजल की जो भूमिका है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि अधिकांश पानी की आपूर्ति भूजल से ही होती है।
1970 के दशक में जो हमारी सिंचाई की क्रांति शुरू हुई और जो ग्रीन रेवोल्यूशन आया, तो हम भूल गए कि एक एवरग्रीन रेवोल्यूशन भी हो सकता है। ग्रीन क्रांति तो ब्लेक साबित हुई क्योंकि उसमें पेस्टिसाईडस, पंप आदि का खूब इस्तेमाल हुआ, भूजल का अत्याधिक दोहन हुआ। सर्व सुलभ भूजल के दोहन से जो नदियों के बेस फ़्लो में अतर आया है, वह बेहद भयावह है। हमारे अब तक के किए गए अध्ययन ने स्पष्ट किया है कि पूरे गंगा बेसिन में इतनी कमी आई है कि जो सहायक नदियां भूजल से सिंचित होती हैं, चाहे केन, बेतवा हो या काली, सिंध, गोमती की सहायक नदियां आदि सभी पानी के बिना खंडित हो रही हैं और रुक रुक कर बह रही हैं।
इन नदियों को बनाए रखने के लिए जो जलीय निवास हैं, उसको बनाए रखने और भूजल को समर्थन देने के लिए जो वेटलैंडस, झील आदि हैं वह सभी मुफ़्त संसाधन बने हुए हैं, उनके लिए कोई पैसा चार्ज नहीं किया जाता और उन तक सभी की आसान पहुँच है। कोई भी आराम से वहां से भूजल दोहन कर सकता है। हम चाहे जो भी ऐक्ट या कानून बना लें लेकिन ग्राउन्ड वाटर की पहुँच तो सभी के पास है। उदाहरण के लिए अगर मेरे पास जमीन है तो वहां के ग्राउन्ड वाटर पर भी हमारा मालिकाना हक हो जाता है, यह कानून जो ब्रिटिश सरकार के समय से ही लागू है कि जिसकी जमीन, पानी भी उसका.. इस पर हमें काम करने की बहुत जरूरत है। आज जब हम जल रिस्टोरेशन के इकोलाजिकल तरीकों की बात करते हैं, तो चार चीजें निकलकर सामने आती हैं, जिन्हें जल-चौपाल मंच के माध्यम से सामने रखना चाहूंगा..
1.) हितधारकों के साथ सक्रिय जुड़ाव होना बेहद जरूरी है, गांव-चौपाल के लोगों के साथ सक्रिय होकर जुड़े बिना हम आगे बढ़ने की नहीं सोच सकते हैं।
2.) मुद्दों और संभावित समाधानों के बीच हमारा समग्र दृष्टिकोण होना चाहिए। अगर हमारे मुद्दे अलग होंगे और समाधान अलग तो हम कभी भी समस्याओं पर काम नहीं कर पाएंगे।
3.) हमें समग्र साझेदारी की जरूरत है। गांव-चौपाल में जाकर मिलकर काम करने और सह-विकास से समाधानों पर काम करने की आज आवश्यकता है और जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक हमारा विकास का मॉडल आगे नहीं बढ़ पाएगा।
4. हमारा समग्र समाधान का दृष्टिकोण , सर्वोत्तम समाधान का दृष्टिकोण होना चाहिए। पानी का काम पैसे का नहीं बल्कि पैशन का काम है, जो हमारी लगन, मेहनत और इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। एक फंडीड प्रोजेक्ट और आमजन/एनजीओ द्वारा शुरू किए गए प्रोजेक्ट्स में बहुत फर्क आ जाता है। सर्वोत्तम समाधान के दृष्टिकोण में हम ग्रामीण संस्कृति से जुड़कर, हितधारकों के साथ समग्र साझेदारी के साथ आगे बढ़कर हमें भूजल को बचाना होगा।
हमें समझना होगा कि हमने स्मार्ट सिटी तो बना लिए हैं, हम सभ्य तो कहलाने लगे हैं लेकिन क्या हम एक सभ्य कॉलोनी में रहकर अपने व्यवहार को और सभ्य बनाना चाहेंगे। यह कैसे होगा, इसके लिए हमें गाँववालों के सीखना होगा, ग्रामीण संस्कृति से सीख लेनी होगी। क्योंकि आज तक जितना भी अध्ययन हमने नदियों पर किया है, उससे जाना है कि हम आज टिपिंग पॉइंट पर खड़े हैं, यह बहुत दु:ख का विषय है कि नदियां आज असहाय मालूम पड़ती हैं और यदि ऐसे ही अपनी छोटी नदियों को हम खोते गए तो गंगा में जल कहां से आएगा?
डॉ वेंकटेश दत्ता
पर्यावरण वैज्ञानिक एवं समन्वयक, गोमती अध्ययन दल
पर्यावरण विज्ञान विद्यापीठ - बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ
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