नदियां जीवनदायिनी हैं, परन्तु विडम्बना देखिए कि वर्तमान में व्यक्ति उन्हें नाले के रूप में परिवर्तित कर चुका हैं. बात चाहे मोक्षदायिनी गंगा नदी की जाए, या देश के अन्य महत्त्वपूर्ण नदियों की, कोई भी इस विषकर प्रदूषण से अछूती नहीं है. भारत में माँ कहे जाने वाली नदियों का आंचल उसके स्वार्थी पुत्रों ने इतना मैला कर दिया है कि उनके वजूद पर ही संकट खड़ा हो गया है. धार्मिक क्रियाकलापों से शायद आज नदियां इतनी दूषित नहीं होती, जितनी तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के हुए अत्यधिक विकास के कारण मैली हो रही है. गंगा सहित अन्य नदियों के प्रदूषित होने का सबसे बड़ा कारण असंशोधित सीवेज है और आज बड़े पैमाने पर शहरों से निकलने वाला मल-जल नदियों में मिलाया जा रहा है, जबकि उसके शोधन के पर्याप्त इंतजाम देश में ही नहीं हैं. नदियों में फैले इस प्रदूषण से केवल लोगों का स्वास्थ्य ही नहीं अपितु जीविका भी बुरी तरह प्रभावित हो रही है. जीविकापार्जन के लिए नदी तंत्र से जुड़े लोग आज प्रदूषण की सर्वाधिक मार झेल रहे हैं.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपने अध्ययन में कहा है कि देशभर के 900 से अधिक शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी पेयजल की प्रमुख स्रोत नदियों में बिना शोधन के ही छोड़ दिया जाता है. कारखाने और मिल भी नदियों को प्रदूषित कर रहे हैं, हाल ही में एनजीटी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 124 औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करायी है, जिनके द्वारा काली, कृष्णा और हिंडन नदी प्रदूषित हो रही थी. नदियों में सीवेज छोड़ने के कारण ही ग्वालियर की दो नदियां स्वर्णरेखा नदी और मुरार नदी आज नाला बन गई हैं. प्राचीन समय की परम्पराओं की प्रहरी इन नदियों में पितृ तर्पण, स्नान और अठखेलियां करने वाले लोग अब उनके नजदीक से गुजरने पर नाक-मुंह सिकोड़ लेते हैं. यह स्थिति देश की और भी कई नदियों के साथ हुई है, देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं. इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, महाराष्ट्र की भीमा, हरियाणा की मारकंडा, आंध्रप्रदेश की मुंसी, दिल्ली में यमुना, उत्तरप्रदेश की काली, गोमती और हिंडन नदी सर्वाधिक प्रदूषित हैं.
लखनऊ में गोमती नदी के किनारों पर बसने वाले धोबी समुदाय पर किया गया एक शोध –
गोमती नदी में लगातार बढ़ते प्रदूषण के कारण इस पर निर्भर लोगों खासकर इसके किनारों पर बसने वाले धोबियों का जीवन बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है. गोमती नदी के किनारे बसने वाले लखनऊ शहर के करीब सौ धोबियों पर किये गये एक सर्वे के अनुसार, नदी का प्रदूषण उन्हें न सिर्फ शारीरिक बल्कि आर्थिक व सामाजिक रूप से भी नुकसान पहुंचा रहा है. नदी के किनारे बसने वाला धोबी समुदाय काफी गरीब है और इनकी आय के स्त्रोत भी सीमित हैं. इनमें से ज्यादातर लोग पिछड़े वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं और यह घरों, होटलों और चिकन इंडस्ट्री से आने वाले वस्त्र धोकर जैसे- तैसे जीवन यापन करते हैं. नदी के प्रदूषण के कारण आये दिन यह लोग किसी न किसी रोग से ग्रसित रहते हैं. ऐसे में समस्या है कि जिनके लिए दो वक्त का खाना जुटा पाना भी मुश्किल है, वह दवा आदि के लिए पैसे कहां से लाएं ?
गोमती नदी के प्रदूषण के कारण बीमार हुए लोगों के स्वास्थ्य
संबंधी खर्चे तो चिंता का विषय हैं ही, लेकिन उनके लिए स्थितियां और भी कठिन तब हो
जाती हैं जब वह बीमार होने के कारण काम पर नहीं जा पाते और ऐसे में मेहनत मजदूरी
करके जो थोड़े- बहुत रूपये वह कमा भी पाते हैं, उनकी आय का वह स्त्रोत भी बन्द हो
जाता है. एक सर्वे के अनुसार, विभिन्न समुदायों से संबंध रखने वाले मछुआरे अपनी आय
का 1/6वां भाग अपने स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं. अध्ययन में यह
पाया गया कि समुदाय के कम पढ़े- लिखे व उम्रदराज लोगों को इन बीमारियों के दौरान
ज्यादा नुकसान होता हैं, क्योंकि वह इस समय न तो ठीक से काम कर पाते हैं न ही अपनी
आय के अनुसार खर्चों में सामंजस्य बैठा पाते हैं. हालांकि इंटर कास्ट और इंटर
रिलीजन के आधार पर भी स्वास्थ्य संबंधी खर्चों के अनुपात में बड़ा अंतर पाया जाता
है. जिसके अंतर्गत इन लोगों की आय का करीब 10 प्रतिशत धन दवा आदि में खर्च हो जाता
है. साथ ही काम न कर पाने के कारण उन्हें अपनी आय का करीब 16 प्रतिशत का नुकसान
होता है.
इस सर्वे में पाया गया कि समुदाय के कुछ पढ़े- लिखे लोगों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष स्वास्थ्य संबंधी खर्चों का अनुपात कम पढ़े- लिखे लोगों के खर्चों से कम हैं. इस प्रकार नदी का प्रदूषण रोकने और इस पर निर्भर समुदायों के स्वास्थ्य व आजीविका की रक्षा करने और प्रदूषण से इकोसिस्टम को होने वाले नुकसान को कम करने का एकमात्र उपाय समुदाय के लोगों के बीच शिक्षा को बढ़ावा देना व उन्हें प्रदूषण नियत्रंण से संबंधित उपायों के प्रति जागरूक करना है.
जल है तो कल है -
कहते हैं जल है तो कल है, अर्थात बिना जल के इस धरती पर
मानव ही क्या किसी भी जीव की कल्पना ही नहीं की जा सकती. यह नदियां लोगों को न
सिर्फ पेय जल उपलब्ध कराती हैं बल्कि सिंचाई से लेकर हाइड्रोपावर के निर्माण व
उद्योगों के विकास में भी सहायक हैं. भारत में नदी महज जल प्रवाहित नहीं करतीं
बल्कि यह अपने साथ प्रवाहित करती हैं लोगों की जीविका, नीतियां, सिद्धान्त, सदाचार
और परम्पराएं. लेकिन आज हम जिस गति से जल के संसाधनों से छेड़छाड़ कर रहे हैं और
नदियों में कूड़ा- कचरा प्रवाहित कर रहे हैं, वह वाकई हमें भावी संकट की ओर ले जा
रहा हैं. घरों व कारखानों से निकलने वाला गंदा पानी नदियों में गिरने तथा उर्वरकों
और कीटनाशकों का हद से ज्यादा प्रयोग करने के कारण आज हमने जल को इतना विषैला बना
दिया है कि उसमें जलीय जीवों का जीवित रह पाना भी मुश्किल है. वहीं नदियों में बढ़ते
प्रदूषण के कारण उसके किनारों पर बसने वाले लोगों धोबी, किसानों, मछुआरों आदि का
जीवन व जीविका बुरी तरह से प्रभावित हो रही है.
प्रदूषित जल व मछलियों का उपभोग लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, जिस कारण इस पर निर्भर लोग हैजा, मलेरिया, टायफाइड, पीलिया तथा पेट व आंख के रोगों समेत विभिन्न जानलेवा बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं. नदियों में प्रदूषण का स्तर इस कदर बढ़ रहा है कि करीब 20 से 30 साल के बाद मिनामाता जैसे गंभीर रोग ने एक बार फिर लोगों के बीच में जन्म ले लिया है, जिसके अंतर्गत लोग अपनी सुनने, देखने, सूंघने, समझने की क्षमता को खो रहे हैं. इसके अलावा बड़ी मात्रा में जल का प्रयोग सिंचाई के लिए करने से जल के गुणवत्ता स्तर में भारी गिरावट आ रही है, जो कि स्किन कलर को प्रभावित करने के साथ ही डायरिया, उदर रोग, पैरालिसिस, उल्टी तथा अंधापन जैसे रोगों को जन्म दे रहा है.
नदियों का शुद्ध जल सबसे अधिक कहीं प्रयोग होता है तो वह है एग्रीकल्चर. एक शोध के अनुसार, दुनियाभर में शुद्ध जल का करीब 69 प्रतिशत जल कृषि क्षेत्र में जाता है तथा विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में ज्यादा पानी कृषि क्षेत्र में प्रयोग किया जाता है, जबकि विकसित देश ज्यादातर शुद्ध जल का प्रयोग औद्योगिक क्षेत्र में करते हैं. हालांकि आज हम जिस तरह से जल के साधनों का दोहन कर रहे हैं व दिन प्रतिदिन इसको प्रदूषित कर रहे हैं, उससे इसकी गुणवत्ता तथा नेचुरल क्लींजिंग कैपेसिटी (WWDR, 2015) में गिरावट आयी है. जिसका मुख्य कारण लगातार बढ़ती जनसंख्या, औद्योगिकीकरण तथा शहरीकरण है. वहीं विद्धुत निर्माण के लिये जिस तरह से आये दिन नदियों पर बांध बनाये जा रहे हैं, उससे न सिर्फ नदियों के प्रवाह की गति धीमी होती है, बल्कि उनकी निरन्तरता में भी अवरोध उत्पन्न होता है, जो आगे चलकर नदियों में प्रदूषण और बाढ़ की मुख्य वजह बनता है.
शोध का उद्देश्य –
उपरोक्त आधार पर अक्टूबर 2015 में गोमती नदी के प्रदूषण और इस पर निर्भर समुदायों विशेषकर धोबियों पर इस प्रदूषण से पड़ने वाले प्रभावों को जानने के लिए लखनऊ के तीन घाटों हनुमान सेतु, पक्का पुल और कुडिया घाट पर करीब 100 धोबियों के मध्य एक शोध किया गया, जिसका मुख्य उद्देश्य उनकी आय, स्वास्थ्य संबंधी खर्चे तथा बीमारियों के कारण उनकी आय पर पड़ने वाले प्रभावों की जानकारी प्राप्त करना था.
धोबियों की सामाजिक -आर्थिक स्थिति –
गोमती नदी पर निर्भर धोबी समुदाय के लोगों को जीविकोपार्जन
के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है. उनका मुख्य व्यवसाय कपड़े धोना है तथा घरों,
होटलों आदि से मिलने वाले कपड़ो को धुलना ही उनकी आय का एकमात्र स्त्रोत है. इनके
परिवारों में मुख्यतः कपड़े धुलने का काम पुरूषों द्वारा व उन्हें इस्तरी आदि करने
का काम महिलाओं व बच्चों द्वारा किया जाता है. जिसके लिए यह सुबह करीब चार बजे
उठते हैं और दिन भर गंदे- मैले कपड़ों को धुलने के बाद कहीं दो वक्त की रोटी कमा
पाते हैं. उनका पूरा दिन इन कपड़ों को धुलने, डाई करने, इस्तरी करने, सुखाने व
इनकी डिलिवरी करने में निकल जाता है. यह लोग गोमती नदी के किनारे स्थित घाटों पर
ही अपना काम करते हैं और उसके जल का ही प्रयोग करते हैं. इस प्रदूषित जल के प्रयोग
के कारण ही यह लोग कई गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाते हैं और इनकी सीमित आय का
काफी भाग इन बीमारियों के इलाज में चला जाता है.
तीनों घाटों में किये गये सर्वे में यह बात निकलकर आयी कि
हनुमान सेतु में काम करने वाले धोबी ज्यादातर घरों व होटलों के कपड़े धुलते हैं,
जिसके लिए वह करीब 20 किलोमीटर दूर से साइकिल से आते हैं. वहीं पक्का पुल के धोबी
लखनवी चिकन के कारखानों व कुडिया घाट के धोबी घरों व टेंट हाउसों से एकत्रित कपड़े
धुलते हैं. वैसे तो धोबी समुदाय की आय का प्रमुख स्त्रोत यह कपड़े धुलना भी है,
किन्तु उनमें से कुछ लोग कपड़े इस्तरी करके, सिलाई- बुनाई और बुक बाइंडिंग करके व
छोटी- मोटी दुकानें लगा कर भी जीविकोपार्जन कर रहे हैं. क्षेत्र में ऐसे धोबियों
की संख्या करीब 26 प्रतिशत है.
चिकन उद्योग से जुड़े हुए धोबियों की एक दिन की औसत कमाई 250 रू. है. जिसमें भी कई प्रकार के स्किन संबंधी समस्याओं के चलते वह महीने में 5-7 दिन काम नहीं कर पाते, जिससे उनकी आय प्रभावित होती है. ठीक इसी तरह से होटलों और घरों के कपड़े धुलने वाले धोबियों की एक दिन की कमाई भी करीब 200-250 रू. ही होती है, किन्तु उनके लिए समस्या यह है कि उन्हें सप्ताह में 3-4 दिन ही काम मिलता है और बाकि के दिनों में उन्हें कोई आय नहीं होती.
इस अध्ययन के दौरान उस एरिया के रिस्पांडेंट्स ने बताया कि उनमें से करीब 98 प्रतिशत लोग यहीं पर पैदा हुए व पले- बढ़े हैं तथा उनमें से 47 प्रतिशत लोग हिंदू व शेष 53 प्रतिशत लोग मुस्लिम समुदाय से संबंध रखते हैं. इनमें से सभी हिन्दू रिस्पांडेंट्स पिछड़े वर्ग के हैं. वहीं मुस्लिम रिस्पांडेंट्स में 60.38 प्रतिशत जनरल वर्ग व 39.62 प्रतिशत लोग पिछड़े वर्ग से हैं. इसी तरह से लखनऊ के घाटों पर काम करने वाले धोबी जनरल और ओबीसी समुदाय के लोग हैं, जिनमें से 68 प्रतिशत धोबी ओबीसी व शेष 32 प्रतिशत लोग जनरल समुदाय के हैं. इससे कई मुस्लिम समुदाय के धोबियों ने जातिवादी परम्पराओं को तोड़ते हुए इस व्यवसाय को चुना है. इस शोध के दौरान यह भी पाया गया कि इस व्यवसाय में शामिल हर व्यक्ति चाहें वह किसी भी वर्ग, समुदाय से संबंध रखता हो, सभी के लिए शिक्षित होना अत्यंत आवश्यक है.
शोध के अनुसार, इस समय कुल धोबियों में से 32 प्रतिशत लोग
पूरी तरह से अशिक्षित हैं, जबकि 31 प्रतिशत ने प्राइमरी तक की शिक्षा प्राप्त की
है. वहीं 35 प्रतिशत लोग सेकेंडरी की पढ़ाई पूरी करने गये थे तथा महज 2 प्रतिशत
लोग ही ऐसे हैं जिन्होंने सेकेंडरी तक की पढ़ाई पूरी की है. इस श्रेणी में हिंदुओं
की तुलना में मुस्लिम समुदाय तथा ओबीसी की तुलना में जनरल वर्ग के लोग ज्यादा
शिक्षित हैं. इसका मुख्य कारण हिंदु समुदाय के धोबियों का आर्थिक रूप से काफी
कमजोर होना है.
इसी प्रकार धोबी व्यवसाय के अलावा अगर दूसरे स्त्रोत से आय
प्राप्त करने वाले समुदायों की बात करें तो इसमें हिंदु समुदाय के 54 प्रतिशत और
मुस्लिम समुदाय के 46 प्रतिशत लोग शामिल हैं. इसी तरह से हिंदु समुदाय में जनरल
वर्ग के 23 प्रतिशत व ओबीसी वर्ग के 77 प्रतिशत रिस्पांडेंट्स ने यह माना कि उनके
पास आय के अन्य स्त्रोत भी हैं. यह आंकड़े यह दिखाते हैं कि हिंदु और ओबीसी समुदाय
के ज्यादा लोगों के पास इस व्यवसाय के अलावा आय के अन्य साधन भी हैं.
सर्वे के अनुसार, इन घाटों पर काम करने वाले यह धोबी महीने में कपड़ें धुल कर औसतन 11,233 रू. तथा अन्य साधन से 1,210 रू. कमा लेते हैं. इस तरह से इनकी मासिक औसत कमाई 12,443 रू. है. आकंड़ों की मानें तो चिकन व्यवसाय से जुड़े मुस्लिम और जनरल समुदाय के धोबियों को ज्यादा काम मिलने के कारण उनकी आय स्थिर व हिंदु समुदाय और औबीसी वर्ग के धोबियों से अधिक है.
धोबियों की उपजीविका -
1990 के करीब धोबियों की उपजीविका पर चर्चा शुरू हुई. 1992
में पर्यावरण और विकास पर हुई यूनाइटेड नेशन्स कांफ्रेस में यह निष्कर्ष निकाला
गया कि गरीबी उन्मूलन के लिए वहनीय जीविका अत्यंत आवश्यक है. जीविका की विविधता के
आधार पर आज तक वहनीय जीविका को कई तरह से परिभाषित किया गया है तथा इस पर कई शोध
भी किये गये हैं, जीविका की विविधता आय के विभिन्न स्त्रोतों तथा सामाजिक, मानवीय
व शारीरिक विभिन्नता पर निर्भर करती है.
चैम्बर्स आर. गॉर्डन आर. कांवे के अनुसार, धोबी धनार्जन के
लिए कपड़े धोते हैं. वह पीढ़ियों से यह काम करते आ रहे हैं, इसीलिए शुरू से ही
उन्हें इस कार्य से जुड़ाव है. इस व्यवसाय से धन अर्जन करने वाले धोबियों की
शारीरिक व आर्थिक स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं होती. उनमें से कुछ लोग अपने निजी घर
में रहते हैं जबकि कुछ किराये के घरों में, जिसके लिए वह बिजली, वाहन आदि से
संबंधित खर्चे वहन करते हैं. वहीं उनका शेष धन शिक्षा आदि में खर्च हो जाता है.
धोबियों की आय की गणना उनकी आर्थिक संपत्ति के आधार पर की जाती है. हिरफिंधल- हिर्शमैन सारिणी के अनुसार, 77 प्रतिशत मुस्लिम, 70 प्रतिशत हिंदु समुदाय और 81 प्रतिशत जनरल व 71 प्रतिशत ओबीसी वर्ग के लोग ऐसे हैं जो सिर्फ कपड़े धुलने के व्यवसाय पर ही निर्भर हैं तथा उनके पास आय का अन्य कोई स्त्रोत नहीं है. इससे यह प्रमाणित होता है कि मुस्लिम समुदाय और जनरल वर्ग के ज्यादातर धोबी जीविकोपार्जन के लिए कपड़े धुलने के व्यवसाय पर ही निर्भर हैं.
धोबियों के जीवन की दयनीय स्थिति व सुधार हेतु मांग -
गन्दे पानी के इस्तेमाल से धोबियों के जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. इस कारण होने वाली बीमारियों में आय से अधिक रूपये खर्च हो जाते हैं. कई बार तो काम में कमी होने से भी खासा परेशानियों का सामना करना पड़ता है. गंभीर बिमारियों के चलते दवाई और डॉक्टर की फीस देनी पड़ती है, जो इन घरों में न्यूनतम बजट में करना संभव नहीं हो पाता है और फिजूल खर्च में गिना जाता है.लोगों की खराब हालत से व्यापार या काम भी बुरी तरह प्रभावित हो जाता है, जिससे एक बड़े समूह को सामान एवं उतने दिनों का नुकसान झेलना पड़ता है. नदियों में होती गंदगी और मैले पानी के कारण से धोबियों का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है. ये खामियां रोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी और काम में शिथिलता ला रही हैं, जो कई बार बड़ी दिक्कतों को दावत देता है.
प्रदूषित जलजनित रोग -
गंदे पानी की वजह से नाखूनों में, त्वचा में, इनफेक्शन और जलन जैसी दुखदायी परेशानियों से जूझना पड़ता है. ज्यादातर धोबी जानते हैं कि नदी का जल अत्यंत दूषित है. इनमें से लगभग 99 प्रतिशत का कहना है कि वे काम के दौरान वे इस पानी का इस्तेमाल नहीं कर सकते. इसलिए पास के ही नल या हैण्डपंप से काम चलाकर खुद को बीमारियों से बचाने की कोशिश करते हैं. शोध के अनुसार लगभग 82 प्रतिशत धोबी रोज प्रदूषित जल के कारण गंभीर रोगों के ग्रास बनते जा रहे हैं बाकि 18 प्रतिशत लोग किसी न किसी तरह से इनसे ग्रसित हैं. जो धोबी इससे सर्वाधिक ग्रसित पाए गये हैं, वे ज्यादातर चिकनकारी इडंस्ट्री में काम करते हैं.
लगभग 12 प्रतिशत धोबियों ने माना है कि उनको प्रदूषित जल से प्रत्यक्ष तौर पर कोई हानि नहीं होती है क्योंकि वे होटल और घरों में काम करते हैं. परन्तु स्वास्थ्य कारणों के चलते वे अपने कामों पर समय से प्रतिदिन नहीं पहुंचते और कार्य में हानि होती है. बीमारियों से होने वाले नुकसान को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है, जिसमें प्रथम शारीरिक कष्ट हैं और दूसरा कार्य में होने वाली हानि एवं अतिरिक्त स्वास्थ सेवाएं लेना है, जो कि 166 रूपए से 600 रूपए तक होता है.
शोध का निष्कर्ष -
धोबी समुदाय की आजीविका परंपरागत रूप से वस्त्र धोने के
कार्यों पर निर्भर है, जिनमें मूल रूप से धोबी ओबीसी के प्रभुत्व वाले हिंदू और
मुस्लिम धर्मों से आते हैं. गोमती नदी में प्रदूषण बढ़ने के कारण, इनकी आजीविका और
स्वास्थ्य पर अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. हालांकि वें कार्य के दौरान नदी का जल नहीं
पीते हैं, परन्तु प्रदूषित जल में निरंतर काम के कारण वे नियमित रूप से त्वचा से
संबंधित बीमारियों से पीड़ित होते हैं. वे मजदूरी के नुकसान के कारण लगभग 16
प्रतिशत चिकित्सा देखभाल पर अपनी मासिक आय का लगभग 10 प्रतिशत खर्च करते हैं.
मजदूरी का नुकसान चिकित्सकीय देखभाल पर किए गए पूर्व खर्चों से अधिक है, साथ ही धर्म
और जातियों में स्वास्थ्य लागत पर भिन्नता रही है.
धोबी समुदाय सभी प्रदूषित जलजनित बीमारियों से अवगत हैं, लेकिन उनके काम की प्रकृति के कारण वे त्वचा रोगों के खतरे को रोकने में सक्षम नहीं हैं. उपलब्ध भौतिक संपत्ति इंगित करती है कि कपड़े धोने से हुई उनकी कमाई उनके लिए पर्याप्त नहीं है. इसलिए अध्ययन में आकलन किया गया है कि इको-फ्रेंडली, बायोडिग्रेडेबल और कम हानिकारक डिटर्जेंट और रंगों के उपयोग के माध्यम से प्रदूषण में कमी के साथ ही जन जागृति और प्रशिक्षण प्रदान करके भी तटीय क्षेत्र के लोगों की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या दूर की जा सकती है. इसके अतिरिक्त अधिक लाभकारी पेशे की ओर विविधता की भी आवश्यकता है.