सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन जल के निरंतर उपयोग और विभिन्न उपागमों जैसे कृषि,
उद्योग एवं घरेलू उपभोग के चलते जल आपूर्ति की उपलब्धता सुनिश्चित करना वर्तमान
समय में केवल भारत सरकार के लिए ही नहीं अपितु वैश्विक सरकारों के समक्ष भी मनन का
विषय है. जिस प्रकार जलवायु परिवेश में निरंतर परिवर्तन आ रहा है, वर्षा के माइक्रो-क्लाइमेट
निर्मित हो रहे हैं, तापमान वृद्धि से हिमखंड लगातार पिघल रहे हैं, भूजल स्तर सतत
गिरता जा रहा है तथा नदियों की हालत दिन प्रतिदिन बदतर होती जा रही है. ऐसे में
बेहद अनिवार्य है कि सुनियोजित ढंग से उपलब्ध जल का संरक्षण किया जा सके.
जल उपयोग दक्षता
के अंतर्गत सिंचाई के उपलब्ध तरीकों का उचित उपयोग करके उपज क्षमता को विकसित करना
शामिल है. वाष्पीकरण और अपवाह जल निकासी से नदियों, नहरों आदि में जल संचयन सही
रूप से उपयोग में लाया जाना ही वास्तविक जल उपयोग दक्षता है. वर्ष 2017 में देश
में पानी के प्रति जागरूकता बढ़ाने,
नदियों के बहाव की
निगरानी करने और पानी को प्रदूषण से बचाने के लिए सरकार ने महत्वकांक्षी ‘जल क्रांति अभियान’ योजना के तहत अब 726 जल की कमी वाले गांव की ‘जल ग्राम’ के तौर पर पहचान की, जिसके माध्यम से समग्र जल
विकास किया जाये. हाल ही में नेशनल
जल मिशन के पांच प्रमुख चिन्हित लक्ष्यों में से एक जल उपयोग कुशलता में 20% की
वृद्धि करना भी निश्चित किया गया है.
जून, 2018 में
भारत के सर्वप्रमुख हिल स्टेशन शिमला
में अचानक हुई पानी की किल्लत ने सैलानियों और स्थानीय निवासियों के मध्य
अराजकता का माहौल पैदा कर दिया और इसके कुछ समय बाद ही नीति आयोग
द्वारा समग्र जल प्रबंधन पर रिपोर्ट जारी की गयी, जिसके अंतर्गत नौ व्यापक
क्षेत्रों में भूमिगत, जल निकायों के स्तर में सुधार, सिंचाई, कृषि गतिविधियां, पेय जल, नीति एवं संचालन व्यवस्था समेत कुल 28 विभिन्न संकेतकों के
आधार पर सूचकांक तैयार किया गया और बताया गया कि भारत इस समय सबसे बड़े जल संकट से
जूझ रहा है, जो वर्ष 2030 तक अपने चरम पर होगा.
उत्तर प्रदेश में जल उपयोग कुशलता पर किया गया शोध -
जल संसाधनों की बढ़ती मांग के साथ कुशल जल उपयोग किसानों, नगरपालिका प्राधिकरण, उद्योगपतियों, विद्युत इंजीनियरों और पर्यावरणविदों के सहित देश के प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक महत्वपूर्ण चिंतन का विषय बन गया है. चूंकि उत्तर प्रदेश में कृषि व्यवस्था के अंतर्गत 93% जल संसाधनों का उपभोग होता है, इसलिए जल उपयोग में अक्षमता उत्पन्न होना स्वाभाविक है. उत्तर प्रदेश लगभग 74000 किलोमीटर नहरों का एक विस्तृत नेटवर्क है, जहां 28000 राज्य स्वामित्व वाली ट्यूबवेल और 3.5 मिलियन ट्यूबवेल किसानों के निजी स्वामित्व में हैं. इन प्रणालियों का उपयोग 13.12 मिलियन हेक्टेयर भूमि को सिंचाई करने के लिए किया जाता है, जिसमें नहर 20%, राज्य ट्यूबवेल 3% और निजी ट्यूबवेल का 68% योगदान हैं.
अनुमान के
मुताबिक ये सिस्टम 65-70% जल संसाधनों को क्षति
पहुंचाकर केवल 30-35% की दक्षता प्रदान
करते हैं. इन नहरों के कारण नदी का लगभग समग्र उपलब्ध जल खींच कर नदियों को सूखने
के लिए छोड़ दिया जाता है तथा नदी से जुड़ी फ्लोरा एवं फोना को विलुप्तप्राय बनाकर
पर्यावरण के लिए संकट उत्पन्न कर दिया जाता है. पानी का एक अन्य महत्वपूर्ण स्रोत भूजल है, जो 68% सिंचाई के लिए योगदान देता है तथा धरती के
एक्विफ्र्स से पानी खींचना भूजल दक्षता निरंतर घट रही है. ये निजी ट्यूबवेल नहरों
से भी सिंचाई के लिए जल का उपयोग करती हैं. फसलों में पानी देने के लिए उपयोग में
लाई जाने वाली ट्यूबवेल अप्रभावशाली रूप से ना केवल आवश्यकता से अधिक पानी खींचते
हैं, अपितु ईंधन का भी अत्याधिक उपभोग करते हैं, जिससे पर्यावरण को क्षति पहुंचती
है. इस प्रकार ट्यूबवेल जब अक्षम रूप से काम करते हैं, तो पर्यावरण प्रदूषण
में इज़ाफा होता है.
शोध का प्रमुख उद्देश्य -
जल एवं भूमि
प्रबंधन संस्थान और अन्य शोध संस्थानों की ओर से किये गए अध्ययन में बताया गया कि
जल किस प्रकार व्यर्थ में बर्बाद और लगातार घटता जा रहा है. शोध के अनुसार नहर के अवांछनीय
कटाव के कारण अनर्गल बहने, वाष्पन-उत्सर्जन, लीकेज आदि के कारण जल बड़ी मात्रा में बर्बाद होता रहता है. जिसके लिए
उचित अध्ययन कर जल प्रयोग दक्षता को बढ़ाए जाने की आवश्यकता बनी हुई है.
उत्तर प्रदेश में नहर व्यवस्था -
उत्तर प्रदेश की
नहर व्यवस्था प्रधान रूप से आपूर्ति आधारित पद्धति पर निर्भर है तथा सिंचाई के लिए
उपयुक्त जल की मांग एवं पूर्ति का सटीक समय-अंतराल में संतुलन ना हो पाना जल उपयोग
निष्फल होने का सबसे बड़ा कारण बनता है. नहरों में उस समय जल की आपूर्ति किया जाना,
जब फसलों को जल की आवश्यकता नहीं हो या बेहद कम हो, व्यर्थ में जलापूर्ति का क्षय
है. इस क्षय को “क्रियात्मक हानि” के तौर पर जाना जाता है.
रिसाव एवं वाष्पोत्सर्जन से होने वाली हानि –
नहर व्यवस्था में
रिसाव एवं वाष्पोत्सर्जन के कारण भी जल उपयोग दक्षता पर प्रभाव पड़ता है. नहरों में
रिसाव की तीव्रता मुख्य रूप से मृदा किस्म, प्रवाह गहनता, प्रवाह संवेग, भूजल
सारणी के स्तर तथा प्रवाहित जल में तलछट भर पर निर्भर होती है. वहीँ वाष्पोत्सर्जन
के प्रमुख कारणों में जलीय खरपतवार, वनस्पतियां, नहर तल एवं तटबंधों के किनारे
इत्यादि हैं.
जब भी उपज
प्रक्रिया के अंतर्गत जल मांग एवं नहर जलापूर्ति में विमेल उत्पन्न होता है, तब
अधिकतम जल कृषि के लिए उपयोग नहीं हो पाता तथा इसका परिणाम जल भराव व भूमि अपकर्ष
के रूप में सामने आता है. नहरों से जुड़ी क्रियात्मक हानियां विभिन्न कारणों पर
निर्भर होती है तथा विभिन्न परियोजनाओं के अनुसार पृथक पृथक हो सकती हैं. मसलन
विशाल परियोजनाओं के अंतर्गत सामान्य प्रबंधन के चलते क्रियात्मक हानियों का
प्रतिशत 5 से 30 फीसदी तक आंकलित किया जाता है तथा उचित प्रबंधन हो तो अपक्षय होने
की संभावना 10 प्रतिशत ओर कम हो जाती है.
क्रियात्मक
हानियों को यदि प्रतीकात्मक तौर पर समझने का प्रयास किया जाये तो जल उपयोग में
कुशल दक्षता का अभाव गर्मियों के मौसम में सरलता से देखा जा सकता है ; जब धान की
फसल के लिए अत्याधिक जल की आवश्यकता होती है और नहरों में जलापूर्ति बेहद अल्प हो
जाती है. ऐसे में भूजल का उपयोग किया जाना किसानों के लिए एकमात्र विकल्प के रूप
में उभरता है, जो पहले से मौजूद भूजल संकट को और अधिक विकराल बनाकर जल उपयोग
प्रभावहीनता की ओर ही इंगित करता है.
क्षेत्र अध्ययन के आधार पर किया गया निरीक्षण -
नहरों का क्षेत्र
अध्ययन करने पर जसल उपयोग दक्षता को प्रभावित करने वाले बहुत से कारण सामने आए, जिन्हें
प्रारंभिक रूप से अग्रलिखित भागों में विभक्त किया जा सकता हैं:
1. संरचनात्मक
मुद्दे-
ज्यादातर नहरों का आकार अनियोजित ढंग से बना है, जिससे जल अपने निश्चित वेग में नहीं बह पाता है. कहीं नहर के ऊपर की पुलिया टूटी होती है, तो कहीं जल की अनियतता से गाद जमा हो जाती है. नहर में जल के बहाव की तीव्रता कम होने से ना केवल पानी को बहने में दिक्कत होती है बल्कि नहर में सिल्ट भी जमा होती रहती है. नहर के रास्ते में आने वाले मोड़ पर बहाव कम हो जाता है और कभी-कभी तो मार्ग इतना ऊबड़- खाबड़ होता है कि जल निकासी अवरुद्ध तक हो जाती है.
2. परिचालन एवं
रख-रखाव के मुद्दे -
नहरों के वास्तविक एवं कागजी स्वरूप में बहुत अंतर होता है. नहरों में जल की मात्रा बेहद अल्प होने के कारण किसान या तो नहर के किनारों को अपने हिसाब से काट लेते हैं या बंध बनाकर सिंचाई प्रयोग में लाते हैं. द्रवीय अनुभाग का कुशल संचालन नहीं होने से नहरों के किनारों पर खरपतवार भारी मात्रा में व्यापत हो जाता है, जिससे नहरों की प्रवाह क्षमता घट जाती है तथा रिसाव अधिक होने का खतरा बढ़ जाता है.
3. अनाधिकृत
निकासी -
अनधिकृत रूप से नहरों के प्रारंभिक और माध्यम छोर पर किसानों द्वारा तटबंध काटने या बंध बना लेने से पानी असमान रूप से व्यर्थ में बहता है और नहरों के अंतिम छोर तक तो स्वाभाविकता पहुंच ही नहीं पाता है. बहुत से स्थानों पर तो गैर क़ानूनी रूप से नहरों से प्रत्यक्ष तौर पर पम्पिंग करके सिंचाई के लिए पानी खींच लिया जाता है, जो जल को अनुप्रवाह अभाव की ओर उन्मुख करता है.
4. नीतिगत
मुद्दे-
सरकार द्वारा
निर्धारित जल मूल्य उसकी बहुमूल्यता और अवसर लागत को उचित रूप से प्रतिबिंबित नहीं
करता, इसीलिए किसानों में जल विकास एवं वहन के प्रति जागरूकता का अभाव है, जिसके
लिए सरकार को उचित व प्रभावशाली कदम उठाने चाहिए. किसानों को उपज क्षेत्र के आधार
पर मूल लागत पर सिंचाई से जुड़े चार्ज देने होते हैं, जल उपभोग एवं सिंचाई प्रक्रम
के आधार पर नहीं. इसी कारण किसान जल संरक्षण के प्रति उदासीन बने रहते हैं. नहरों
में विशाल मात्रा में जल प्रवाहित करने सम्बन्धी कोई लेखा- जोखा नहीं होना एवं
मोनिटरिंग व सही परीक्षण के अभाव में जल उपयोग दक्षता पर कुप्रभाव पड़ता है.
जल संसाधन की अक्षमता के कारण और उपचार -
नहर प्रणाली में
अक्षमताओं का एक मुख्य कारण जल को एक स्थान से दुसरे स्थान पर प्रवाहित करते समय
पानी का मिट्टी की मेढ़ पर सोख लिया जाना भी है क्योंकि नहर प्रणाली का आधार ही कुछ
ऐसा है और सर्वे के आधार पर यह बात भी स्पष्ट हुई है. गैर क़ानूनी रूप से पानी का
कटाव और प्रत्यक्ष पम्पिंग के कारण जल उपयोग दक्षता सर्वाधिक प्रभावित होती है. कानपुर
शाखा द्वारा किये गए शोध के अनुसार, इस बात का स्पष्टीकरण कानपुर शहर के आसपास बनी नहरों के पास पानी का रिसाव तथा
उनके छोर कटे होने से भी होता है.
1. वैज्ञानिक
उपागमों से हो नहर संचालन :
क्षेत्र अध्ययन के अंतर्गत सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के जरिये जल उपयोग दक्षता के अभाव से जुड़े कारणों को जानने का प्रयास किया गया. किसानों और नहर अधिकारियों से लिए गये साक्षात्कार के आधार पर यह ज्ञात हुआ की गैरकानूनी जल निकासी मात्र एक दिन में होने वाली प्रक्रिया नहीं है, अपितु नहर प्रबंधन से जुड़े निचले अधिकारियों (सींचपाल या सींचपरिवेक्षक) आदि की लापरवाही के चलते नहरों का प्रबंधन सही समयावधि पर नहीं हो पाने से संतृप्त किसानों द्वारा धीरे-धीरे व्यव्हार में लाया गया आचरण है. इन कारणों का वास्तविक निदान करने के लिए नहरों का पूर्वनिश्चित समय एवं वैज्ञानिक आधार पर संचालन होना आवश्यक है.
2. जल- प्रबंधन
को लेकर किसानों में जागरूकता का अभाव :
किसानों द्वारा सिंचाई
के लिए पानी का ठीक प्रकार से प्रयोग नहीं किया जाता, जिसका मुख्य कारण किसानों को जल- प्रबंधन की उचित जानकारी न
होना है. कभी-कभी यह भी देखा जाता है कि किसान उन फसलों को भी सींचते हैं, जिनको
पानी की अधिक आवश्यकता नहीं होती. जिससे जल, समय व संसाधनों की बर्बादी होती है तथा इसका कृषि कल्याण और
किसानों की आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. अध्ययन के अनुसार जो किसान
विभागों के निर्देशानुसार चलते हैं, उन्हें पानी की ज्यादा आवश्यकता नहीं होती है
तथा उनकी फसल भी काफी अच्छी होती है. जिससे उन्हें
काफी मुनाफा भी अधिक होता है. कानपुर क्षेत्र का निरीक्षण करने पर शोधकर्ताओं ने
यह पता लगाया कि धान का उत्पादन रेतीली दोमट मिट्टी में होता है, जिसमें जरूरत से 5 गुना ज्यादा पानी प्रयोग में लाया जाता है.
3. कृषि के
लम्बवत् विस्तार पर जोर देना :
उत्तर प्रदेश सरकार
द्वारा किये गये एक सर्वे “स्टेटस ऑफ वाटर
रिसोर्सेज इन उत्तर प्रदेश एंड स्कोप फॉर द डेवलपमेंट एंड कंजर्वेशन” के मुताबिक सरकार ने जमीन की गुणवत्ता को
नजरअंदाज करते हुए सिर्फ फसलों की पैदावार बढ़ाने पर ही जोर दिया है. वहीं “यूपी डब्लू एस आर पी” प्रारूप के अनुसार पैदावार 5.42 मैट्रिक टन प्रति हेक्टेयर हो चुकी है, जिससे जमीन की उपज बढ़ाने
के लिए अधिक से अधिक मात्रा में पानी का प्रयोग किया जा रहा है.
4. सर्वोत्तम
साधनों के साथ कृषि व जल प्रबंधन करना :
किसी भी फसल की
पैदावार व उत्पादकता बढ़ाने में जल की अत्यंत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है. शोध
के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रो में
विकास प्राधिकरण का ध्यान केवल भूमि स्तर एवं पैदावार बढ़ाने तक में सीमित होकर
किसानों को जल- प्रबंधन की और जागरूक करने व उनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने के
उपायों पर भी होना चाहिए. बेतवा गुरु सराय, शारदा सहायक और उसके निकट स्थित
क्षेत्र में क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण का काम पानी की दक्षता और नियमितता को
बढ़ाने में मददगार रहा है और इन क्षेत्रों में अच्छी पैदावार का कारण उचित मात्रा
में पानी की उपलब्धता और उसका उचित तरीके से प्रयोग करना है. कुछ फसलें जैसे गन्ना,
धान आदि की गुणवत्ता पानी के अभाव में बिल्कुल नष्ट हो जाती है और कुछ फसलें अपनी
पैदावार का एक चौथाई अनाज ही दे पाती हैं क्योंकि इनकी पैदावार में पानी का बहुत महत्वपूर्ण योगदान
होता है और बिना पानी की उपलब्धता के यह फसल ज्यादा पैदावार नहीं दे पातीं. पानी
का फसलों में जरूरत से ज्यादा प्रयोग करना बिल्कुल भी उचित नहीं है क्योंकि इसके
ज्यादा प्रयोग से फसलों की लागत बढ़ जाती है और कहीं-कहीं जमीन पर भी बुरा प्रभाव
पड़ता है. बेचन चौक सिंचाई नियम के अनुसार, जिन फसलों में पानी की आवश्यकता 75 प्रतिशत तक कम होती है वह फसलें अपेक्षाकृत ज्यादा अच्छी होती हैं.
5. नहर व्यवस्था
का कुशल प्रबंधन :
राज्य में 7 प्रमुख नहरे हैं जो अपनी बेहतर संरचना से फसल उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ाने में सक्षम है, जैसे कि आगरा नहर जहां धान की फसल नाम मात्र के लिए होती है. आंकड़ों के अनुसार आगरा नहर दूसरी नहरों की तुलना में सबसे ज्यादा उत्पादन में काम आती है तथा शारदा नहर भी पानी के नियमित इस्तेमाल और नियमित फसल उत्पादन में सहायक है. अन्य नहर तंत्रों की कुशलता में भी इज़ाफा किया जा सकता है, यदि सर्वप्रथम सभी नहरों को उनके कमान क्षेत्र के अंतर्गत सही संरचनात्मक रूप से अनुकूलित गहराई के साथ सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जा सके. दूसरा फसलों के प्रकारों (रबी, खरीफ या अन्य) के आधार पर एवं क्लाइमेट को ध्यान में रखते हुए नहरों को संचालित किया जाना चाहिए.
6. फसलों की
सिंचाई के लिए हो उचित तकनीकों का प्रयोग :
शोध में पाया गया कि सर्फेस विधि से सिंचाई करने पर उसकी 60-70 प्रतिशत गुणवत्ता में 30-40 प्रतिशत पानी बर्बाद हो जाता है, जबकि प्रेशर विधि, जिसे माइक्रो इरिगेशन भी कहते हैं, को अपनाने से काफी मात्रा में जल को बचाया जा सकता है. ग्रामीण क्षेत्रों में औसत ऊंचाई और औसत गहराई के अनुसार सिंचाई करने से पानी की खपत कम और अनाज ज्यादा मात्रा में उपलब्ध होता है और बाराबंकी तथा अन्य क्षेत्रों में यह तकनीक उपयोग में लाई जाती है तथा वहां खेती सैद्धान्तिक नीतियों के अनुसार होती है. कुछ राज्य जैसे कि मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, राजस्थान इन जगहों पर माइक्रो इरिगेशन विधि प्रयोग की जाती है. महाराष्ट्र सरकार 1,66,000 हेक्टेयर जगह सिर्फ इस विधि से सिंचाई करने के लिए प्रयोग कर रही है, जबकि इसके लिए उत्तर- प्रदेश सरकार महज 2,500 हेक्टेयर जमीन ही प्रयोग कर रही है.
इन मामलों में
उत्तर प्रदेश अभी भी काफी पिछड़ा है, जिसके पिछड़े होने का कारण यह भी है कि यहां
सरकार की नीतियां पहुंच ही नहीं पाती और उनका प्रचार भी सही ढंग से नहीं हो पाता.
जिसका मुख्य कारण यहां सराकार का ध्यान पिछड़े वर्ग के किसानों को सब्सिडी देने
में तथा इनका आर्थिक जीवन ऊंचा करने की ओर होना है. शोध में पाया गया कि राष्ट्रीय
हित में किसान के पास बहुत बड़ी मात्रा में जमीन उपलब्ध है, लेकिन वह उसे सिंचाई के रूप में प्रयोग नहीं कर पाते
क्योंकि सब्सिडी देने के कारण अन्य किसान उसका लाभ नहीं उठा पाते हैं.
किसानों का माइक्रो
इरीगेशन प्रणाली नहीं अपनाने के पीछे उनकी जागरूकता की कमी सबसे मुख्य कारण है,
क्योंकि किसानों को ऐसा लगता है कि उसकी जमीन की उर्वरकता केवल बागानों तक ही
सीमित रह गई है, जबकि दक्षिणी राज्यों
जैसे महाराष्ट्र में इस प्रणाली का प्रयोग करके गन्ने, सब्जियां आदि की पैदावार की जाती है.
आंकड़ों की मानें
तो जोश सी सैमुअल और एच पी सिंह ने पाया कि भारत में टपक सिंचाई का प्रयोग करके
गन्ना व सब्जियां उगाने के लिए 11 मिलियन हेक्टेयर
जमीन उपलब्ध है. वहीं उत्तर प्रदेश में 2.04 मिलियन जमीन गन्ने के लिए और 0.49 4 मिलियन फलों के लिए और 0.2684 मिलियन सब्जियों के लिए उपलब्ध करायी गयी है.
ऊपर दी हुई
नीतियों का अगर सिर्फ 25% भी अमल में लाया जाए तो भारत में 5.41 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी को बचाया जा सकता है. अगर गन्ने
की खेती करने वाले सारी फसलों को टपकन सिंचाई प्रणाली के अंतर्गत ला दिया जाए तो 18.3 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी बचाया जा सकता है.
7. प्रबंधन में
हो संस्थागत परिवर्तन :
भारतीय सिंचाई
प्रबंधन आज भी सरकारी अनुबंध के अंतर्गत आता है, जिसमें सबसे कम रुचि ली जाती है. सरकार ने अपना एक
लोकतांत्रिक तरीका बना रखा है जिससे सिंचाई प्रबंध सुचारु रुप से चल सके और “वाटर यूज़र
एसोसिएशन” नियमितता के साथ कार्यरत रहे. दुनिया में भारत जैसे सात और देश हैं जो पूरी दुनिया का 80% पानी का हिस्सा
प्रयोग में लेते हैं और अलग-अलग नियमों नियमावलियों पर चलते हैं. 1987, 2002 और फिर 2012 में भारत सरकार और 1999 में यूपी सरकार ने अपनी जल नीति में लोगों को अपनी तरफ
आकर्षित किया है, जिसमें उन्होंने सिंचाई अनुबंध पर विशेष ध्यान दिया है.
विश्व बैंक
द्वारा कराई गई एक प्रायोगिक परियोजना “सोडिक लैंड रीक्लेमशन प्रोजेक्ट”, जिसके लिए
उन्होंने सरसीडीह और राजापुर यह दो स्थान प्रतापगढ़ डिस्ट्रिक्ट, उत्तर प्रदेश में
चुने. इस परियोजना का मूल्यांकन एक विदेशी एजेंसी ने किया जिसने कि बताया इस
परियोजना के बाद 36% वृद्धि सिंचाई
में और 30% वृद्धि उत्पादकता में
हुई है, जो कि पानी के सुचारु
उपयोग को दर्शाता है. इसके बाद एक दूसरा प्रायोगिक परीक्षण किया गया जोकि घागरा
गोमती बेसिन के निकट हुआ जिसके अंदर 3 लाख हेक्टेयर CCA दर्ज किया गया यह प्रोजेक्ट 2002 में उस शुरू हुआ जिसके अंतर्गत 422 दल कार्यरत हैं.
वाटर यूजर एसोसिएशन ने बहुत सी नीतियों और परियोजनाओं के आधार पर कुछ असीमित
जगहों को अपने निरीक्षण में लेकर सिंचाई विभाग को अलग गति प्रदान की और सिंचाई के
क्षेत्र में पानी की गुणवत्ता को बचाने के लिए अनेकों कार्य किए हैं. जिसके
परिणामस्वरूप निम्न निष्कर्ष निकल कर आया है:
सिंचाई क्षेत्र
में बढ़ोतरी.
सिंचाई क्षेत्र
में समानता.
उपजाऊ कीमतों में
कमी.
जल उपयोग दक्षता में स्थायित्व.
REFRENCES :
B. http://mowr.gov.in/hi/schemes-projects-programmes/schemes/implementation-of-national-water-mission
D. http://pibphoto.nic.in/documents/rlink/2018/jun/p201861401.pdf