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कोसी नदी अपडेट - बिहार बाढ़, सुखाड़ और अकाल 1968, श्री सुधीर नाथ मिश्र से हुई चर्चा के अंश

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  • Dr Dinesh kumar Mishra Dr Dinesh kumar Mishra
  • May-29-2022

बिहार-बाढ़-सूखा-अकाल-1968


1968 में कोसी नदी में भयंकर बाढ़ आयी थी और उसी साल नदी में 9.13 लाख क्यूसेक का प्रवाह आया था और यह रिकॉर्ड अभी तक नहीं टूटा है। इस बाढ़ में पूर्वी कोसी नहर और उसकी कई शाखाएं तहस-नहस हो गयी थीं। जिसकी वजह से पूर्णिया जिले की स्थिति बहुत ही नाजुक हो गयी थी। सहरसा जिले में इस बाढ़ से अकल्पनीय क्षति हुई थी, पर पूर्णिया में भी कम नुकसान नहीं हुआ था। इसका आख्यान लिखते समय मैंने अररिया के निवासी 76 वर्षीय श्री सुधीर नाथ मिश्र, ग्राम-पो. रमई वाया फारबिसगंज, जिला पूर्णिया (वर्तमान अररिया) से उस साल की बाढ़ के बारे में बात की। उन्होंने जो कुछ मुझे बताया वह उन्हीं के शब्दों में लिख रहा हूं। वह कहते हैं,

"इस इलाके में तो बाढ़ आती ही रहती है, उस साल थोड़ा ज्यादा आ गयी थी पर उसका अनुभव कुछ अलग नहीं था। बाढ़ के घर में तो हम लोग बैठे ही थे। सरकार का सिस्टम ऐसा था कि मुख्यालय से मदद गांव तक पहुंचते-पहुंचते उसका परिमाण काफी घट जाता था। गांव पहुंचते ही वहां के दुकानदार, मुखिया, कर्मचारी आदि उसका आपस में लेन-देन कर ही लिया करते थे और जो भुक्तभोगी था वह जो भी थोड़ा-बहुत मिल जाता था उससे संतोष कर लेता था।"


"हमारे यहां उत्तर से बहुत सी नदियां जैसे सुरसर, परमान और बकरा आदि इस इलाके में प्रवेश करती हैं। सुरसर के पश्चिम में कारी कोसी और उसके बाद कोसी, यहां से कोसी तक हर तरफ नदियों का ही साम्राज्य है। उनके किनारे बने जमींदारी या सरकारी बांध टूटते ही रहते थे, अभी भी टूटते हैं। मगर फसल का इतना नुकसान तब नहीं होता था जितना अब होने लगा है। पानी की निकासी पर जो काम होना चाहिये था वह नहीं हो पाया और इस वजह से परेशानियां पहले के मुकाबले ज्यादा बड़ी है। सड़कों में जो पुल बने हैं वह पानी की मात्रा को देखते हुए छोटे हैं। उन से पानी निकल नहीं पाता और ज्यादा समय तक बना रहता है।"


"यहां से नेपाल नजदीक पड़ता है और वहां का एक बड़ा शहर विराटनगर यहां से ज्यादा दूर नहीं है। वहां से धरान के बीच में बहुत सी फैक्ट्रियां बन गयी हैं, जिनकी मशीनों और परिसर आदि की सफाई होती है तो उस कचड़े का रसायन युक्त पानी भी हमारी नदियों के साथ आता है। बरसात के शुरुआती दौर में जो खेती कर लेते हैं उसका बड़ा हिस्सा नदियों की बाढ़ में बह जाता था। बरसात के अन्त तक अगर फसल बच गयी और उतनी बरबाद नहीं हुई तो थोड़ा बहुत मिल जाता था। उन दिनों परती जमीन थी, चारागाह का विशेष प्रबन्ध था जो अक्सर ऊंची जमीन पर हुआ करता था। जानवरों को वहीं हांक दिया जाता था। फिर भी पानी ज्यादा दिन टिकने पर जानवर मरते भी थे। यहां एक समूह होता था जिसे हड़बिच्छा कहते थे। कभी कभार ऐसा भी होता था कि यह लोग मरे जानवरों की हड्डियां लेकर चले जाते थे। बड़ी बाढ़ या ज्यादा देर तक ठहर गई बाढ़ के समय उनका रोजगार बढ़ जाता था। वह बैल गाड़ियां लेकर आते थे और जानवरों की हड्डियां ले जाते थे। उस हालत में एक-एक गांव से 20-20 बैल गाड़ियों भर हड्डी उनको मिल जाती थी। जानवरों में खुरहा तो सामान्य था।"

"गांव में घर बनाते समय लोग अपनी बसाहट को आमतौर पर आसपास की जमीन से मिट्टी भर कर दो-तीन फुट ऊपर कर देते थे परन्तु यह भी कभी-कभी बाढ़ के पानी में डूब जाता था और घरों में पानी आ जाता था। आवागमन की स्थिति यह थी कि ज्यादातर लोग पैदल चला करते थे। तैरना प्राय: सभी जानते थे। छोटे-मोटे नदी नाले तो तैर करके पार कर लिया करते थे। नावें थीं तो उनकी मदद से महिलाओं को भी शौचादि के लिये कहीं ऊंची जगह पर ले जाना पड़ता था लेकिन अब स्थिति इतनी बुरी नहीं है। भैंसा गाड़ी से आना-जाना होता था। संसाधनों की कमी के बीच प्रकृति की मार झेलना आसान नहीं होता पर सामना तो करना पड़ता था। किसी के मर जाने पर अर्थी को नदी के पास ले जाकर सांकेतिक तौर पर उसे मुखाग्नि देकर बहा दिया जाता था। बड़ी और लम्बे समय तक खिंचने वाली बाढ़ में तो यह सब अभी भी करना पड़ता है। अब तो नावों पर भी दाह संस्कार होने की खबरें आने लगी हैं। सड़कों पर बहते पानी के बगल में भी चिताएं आज भी जलती हैं। लाशें ऊपर नेपाल से बहती हुई तब भी आती थीं और आज भी आती हैं। आसपास के गांवों से भी बहती हुई लाशें आती थीं और यह क्रम अभी भी टूटा नहीं है। यह बड़ा ही हृदय विदारक दृश्य होता है।"

"नावों से बरसात में यात्रा उतनी सुगम नहीं होती है जितनी कह दी जाती है। सांप तो उसमें भी आ जाता था। मनुष्यों की तरह वह भी डरा हुआ ही रहता है। डरे होने के कारण वह काटे भले ही नहीं मगर जितने भी लोग नाव में होते हैं, डर तो सबको लगता ही रहता है। घरों के छप्पर बहते हुए देखना तो आम बात थी।"

"1981 में मेरे पिताजी का देहान्त हो गया था। यहां सिकटी अंचल में हमारी एक कामत थी। मैं वहीं से लौट रहा था। बरदाहा एक रेलवे स्टेशन है जहां से शाम को अपने गांव को चले। बीच में एक छोटी नदी पड़ती थी। अंधेरा हो चुका था। नदी में धीरे-धीरे कदम रखते हुए आगे बढ़े। 3-4-5 फुट तक पानी मिला था पर जैसे-जैसे पार की। नदी पार करने के बाद एक गांव था जहां लोगों ने हम लोगों से कहा कि आगे मत जाइये। पता नहीं क्या स्थिति मिले पर मजबूरी थी कि जाना ही था। रात भर चलते रहे तब कहीं जाकर ठौर मिला।"

"मैंने उफनती नदियों में भी तैरने का काम किया है। इस मौसम में तो जान को जोखिम में भी डाल कर आना-जाना पड़ता था। अररिया जिले के पूर्वी भाग में ऐसी परिस्थितियां बन ही जाती हैं।"

"अब सुधार तो निश्चित रूप से हुआ है। पहले कोई बीमार पड़ता था तो खटिया की एंबुलेंस बना कर नाव से सड़क तक पहुंचाने का प्रयास करना पड़ता था। उसके बाद वहां की व्यवस्था देखनी पड़ती थी। अभी तो सड़क पर पहुंच जाने के बाद कुछ न कुछ व्यवस्था हो जाती है लेकिन उसका दूसरा भी पक्ष है। पतन जैसे शिक्षा के क्षेत्र में हुआ है, स्कूल का भवन बन गया है, विद्यालय खुल गया है जो पहले नहीं था, पर शिक्षा का स्तर गिर गया है। चिकित्सा के क्षेत्र में भी वैसे ही गति हुई है। स्वास्थ्य के स्तर का भी वैसा ही हाल है। डॉक्टर है, पर वह जरूरत के समय नहीं रह सकता है। चिकित्सालय बन गया है पर वहां खोजने पर कंपाउंडर भी मिल जायेगा, यह जरूरी नहीं है। यह सुविधा है पर विश्वसनीय नहीं है। जैसे चल रही है उसे उसी रूप में स्वीकार कर लेना पड़ेगा।"

"अपने गांव की एक घटना कहता हूं। एक आदमी ने कुछ अपराध किया, जिसकी मैंने गांव के मुखिया से शिकायत की। वह कहता है कि जो दोषी है उसे कठोर से कठोर दंड मिलना चाहिये। ऐसा उनकी मान्यता थी। मैंने उनसे कहा कि हर गांव में एक दो लोग ऐसे भी होते हैं जो जनप्रतिनिधि से भी ऊपर होते हैं और उसी के अनुरूप आचरण करते हैं। ऐसे लोगों के रहते हुए भी हमारा समाज कितना व्यवस्थित रह पाये वह तो देखना पड़ता है। दोषी को नियंत्रित किया जाये और निर्दोष को बरबाद न होने दिया जाये, ऐसी एक सामाजिक व्यवस्था का निर्माण हमें करना चाहिये।"

श्री सुधीर नाथ मिश्र


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