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नकारने से और नासूर बन जाएगी मौसम परिवर्तन की समस्या

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  • November-22-2018

24वां कन्वेंशन ऑफ द पार्टीज अर्थात कोप-24 के माध्यम से आगामी 2 से 14 दिसम्बर 2018 तक पोलैण्ड के शहर काटोवाइस में जलवायु परिवर्तन की गंभीर समस्या पर चिंतन होगा। इस बार का चिंतन इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इस समस्या में सबसे बड़े सहभागी देश अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा मौसम परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या को पहले ही नकारा जा चुका है। अमेरिका द्वारा मौसम परिवर्तन के अंतराष्ट्रीय समझौते से अपने आप को पहले ही अलग कर लिया गया है। ट्रम्प का यह फैसला सभी के लिए चौंकाने वाला था। ट्रम्प के इस निर्णय से दुनियाभर के पर्यावरणविद् सकते में हैं क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी के दबाव में जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के समय मौसम परिवर्तन पर अमेरिका का रूख कुछ सकारात्मक बना था लेकिन ट्रम्प के इस निर्णय ने पूरी दुनिया को एक झटका दे दिया। अमेरिका के इस निर्णय से पेरिस समझौते में आनाकानी करते हुए जुड़े देश भी अगर अब बेलगाम हो जाएं तो कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए। ट्रम्प अपने चुनाव प्रचार के दौरान से ही मौसम परिवर्तन की समस्या को मात्र कुछ देशों व वैज्ञानिकों का हव्वा मानते रहे हैं जबकि दुनिया धरती के बढ़ते तापमान से लगातार जूझ रही है। ऐसे कठिन समय में दुनिया का सबसे प्रभावशाली व्यक्ति एक विश्वव्यापी समस्या को दरकिनार करके उससे अलग हो चुका है। अब यह भी तय है कि भविष्य में इस विषय पर बड़े नीतिगत बदलाव होंगे। जिनकी पहल पोलैण्ड में हाने वाले मौसम परिवर्तन सम्मेलन में होती दिखने की प्रबल सम्भवना है।

संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून ने अपने पहले ही सम्बोधन में दुनिया को आगाह किया था कि जलवायु परिवर्तन भविष्य में युद्ध और संघर्ष की बडी वजह बन सकता है। बाद में जब संयुक्त राष्ट्र द्वारा मौसम परिवर्तन के संबंध में अपनी रिपोर्ट पेश की गई तो उससे इसकी पुष्टि भी हो गई थी। संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व महासचिव स्वर्गीय कोफी अन्नान भी मौसम परिवर्तन पर अपने पूरे कार्यकाल में चिंता जताते रहे। दुनियाभर के पर्यावरण विशेषज्ञ भी पिछले दो दशकों से चीख-चीख कर कह रहे हैं कि अगर पृथ्वी व इस पर मौजूद प्राणियों के जीवन को बचाना है तो मौसम परिवर्तन को रोकना होगा। विश्व मेट्रोलॉजिकल ऑरगेनाइजेशन व यूनाइटेड नेशन्स के पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा वर्ष 1988 में गठित की गई समिति इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के पूर्व अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र कुमार पचौरी व अमेरिका के पूर्व उप राष्ट्रपति अल गोर को नोबल समिति द्वारा वर्ष 2007 में शांति का नोबल पुरस्कार दिए जाने से विषय की गंभीरता स्वतः ही स्पष्ट हो गई थी लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा इस ज्वलंत समस्या को नकारना दुनियाभर के पर्यावरणविदों को चिंता में डाल रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प चूंकि व्यापारी भी हैं तो यह मानकर भी चला जा रहा है कि क्लाइमेट चेंज संधि के चलते ऐसे स्थानों से गैस और तेल नहीं निकाल पा रहे हैं जिनको कि प्रतिबंधित किया हुआ है।

डोनाल्ड ट्रम्प के इस रूख से कुछ गरीब और विकासशील देश जरूर खुश होंगे जोकि अपने देश के विकास में मौसम परिवर्तन की संधि को बाधा मानकर चल रहे हैं। भारत के संदर्भ में यह देखने वाली बात होगी कि हमारी सरकार इस निर्णय को कैसे लेती है? भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी मौसम परिवर्तन की समस्या पर गंभीर नजर आते हैं। नरेन्द्र मोदी ने गत वर्ष अपनी लंदन यात्रा के दौरान कहा था कि विश्व के सामने दो सबसे बड़े संकट हैं एक तो आतंकवाद दूसरा क्लाइमेट चेंज और इन दोनों समस्याओं से लड़ने के लिए गांधी दर्शन पर्याप्त है। ट्रम्प का रूख मोदी के एकदम विपरीत है, भारत की तरह ही यूरोपीय देशों को भी मौसम परिवर्तन पर अमेरिका के साथ कदम ताल मिलाने में दिक्कत जरूर आएगी।

अतीत में मौसम परिवर्तन की समस्या को लेकर जहां गरीब व विकासशील देश हमेशा ही दबाव महसूस करते रहे हैं, वहीं अमीर देश अपने यहां कार्बन के स्तर को कम करने के लिए अपनी सुविधाओं व उत्पादन में कमी लाने के लिए ठोस कदम उठाते नहीं दिखे हैं। इस विषय पर पेरिस से लेकर मोरक्को सम्मेलनों में जितने भी मंथन हुए हैं, सबमें अमृत विकसित व अमीर देशों के हिस्से ही आया है जबकि विष का पान गरीब और विकासशील देशों को करना पड़ा है।

वैसे क्लाइमेट चेंज के विषय में अमेरिका के पूववर्ती राष्ट्रपतियों का रूख भी कोई बहुत उत्साहजनक नहीं रहा है क्योंकि सन् 1997 में क्योटो में हुए सम्मेलन में दुनिया में ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के संबंध में की गई संधि में प्रत्येक देश को सन् 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 1990 के मुकाबले 52 प्रतिशत तक की कमी करना तय किया गया था। इस संधि को सन् 2001 में बॉन में हुए जलवायु सम्मेलन में अंतिम रूप दिया गया था। इस संधि पर दुनिया के अधिकतर देशों द्वारा अपनी सहमति भी दी गई थी। गौरतलब है कि पर्यावरण विशेषज्ञ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को 2 प्रतिशत करने के हक में थे, लेकिन अमेरिका जहां पर दुनिया की कुल आबादी के मात्र 4 प्रतिशत लोग ही बसते हैं, वह इस पर सहमत नहीं हुआ था हालांकि सन् 1997 में क्योटो संधि के दौरान बिल क्लिंटन द्वारा इस पर सहमति जताई गई थी लेकिन जार्ज डब्ल्यू बुश ने राष्ट्रपति बनने के पश्चात् इसको मानने से इनकार कर दिया था और फिर बराक ओबामा भी अपने हितों को सुरक्षित करते हुए कुछ बदलावों के साथ बुश की नीतियों को ही आगे बढ़ाते दिखे थे। उस समय अमेरिका के इस रवैये से क्योटो संधि का भविष्य ही संकट में पड़ गया था। लेकिन प्रारम्भ में क्योटो संधि पर झिझकने वाले रूस के इससे जुड़ जाने के कारण दुनिया के अन्य ऐसे देशों पर दबाव बना जोकि इससे बचते रहे थे। इसका श्रेय रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन की दूरदर्शिता को जाता है। उस समय अमेरिका के 138 मेयर ने इस संधि के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया था। जैसे के ट्रम्प के रूख से जाहिर हो रहा है कि वे पुतिन के प्रसंशक हैं ऐसे में मौसम परिवर्तन पर दोनों का दोस्ताना कैसे आगे बढ़ेगा अगर ट्रम्प और पुतिन की रणनीति मौसम परिवर्तन को लेकर ट्रम्प की राह चली तो यह पर्यावरण हितैषी नहीं होगा। अमेरिका के अधिकतर उद्योग तेल व कोयले पर आधारित हैं इसलिए वहां अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। ब्रिटेन के एक व्यक्ति के मुकाबले अमेरिका का प्रत्येक नागरिक दो गुणा अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस का अत्सर्जन करता है। जबकि भारत विश्व में कुल उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैसों का मात्र तीन प्रतिशत ही उत्सर्जन करता है।

यूनाइटेड नेशन्स की रिपोर्ट के अनुसार अगर ग्रीन हाउस गैसों पर रोक नहीं लगाई गई तो वर्ष 2100 तक ग्लेशियरों के पिघलने के कारण समुद्र का जल स्तर 28 से 43 सेंटीमीटर तक बढ जाएगा। उस समय पृथ्वी के तापमान में भी करीब तीन डिग्री सेल्शियस की बढोत्तरी हो चुकी होगी। ऐसी स्थितियों में सूखे क्षेत्रों में भयंकर सूखा पडेगा तथा पानीदार क्षेत्रों में पानी की भरमार होगी। वर्ष 2004 में नैचर पत्रिका के माध्यम से वैज्ञानिकों का एक दल पहले ही चेतावनी दे चुका है कि जलवायु परिवर्तन से इस सदी के मध्य तक पृथ्वी से जानवरों व पौधों की करीब दस लाख प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी तथा विकासशील देशों के करोडों लोग भी इससे प्रभावित होंगे। रिपोर्ट के संबंध में ओस्लो स्थित सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लाइमेट एंड एन्वायरन्मेंट रिसर्च के विशेषज्ञ पॉल परटर्ड का कहना है कि आर्कटिक की बर्फ का तेजी से पिघलना ऐसे खतरे को जन्म देगा जिससे भविष्य में निपटना मुश्किल होगा। रिपोर्ट का यह तथ्य भारत जैसे कम गुनहगार देशों को चिन्तित करने वाला है कि विकसित देशों के मुकाबले कम ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित करने वाले भारत जैसे विकासशील तथा दुनिया के गरीब देश इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट हमें आगाह कर रही है कि धरती के सपूतों सावधान धरती गर्म हो रही है। वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाइ ऑक्साइड, मीथेन व क्लोरो फ्लोरो कार्बन आदि) की मात्रा में इजाफ़ा हो रहा है। यही कारण है कि धरती का तापमान लगातार बढ़ रह है। ओजोन परत छलनी हो रही है, जिसके कारण सूर्य की पराबैंगनी किरणे सीधे मानव त्वचा को रौंध रही हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं तथा समुद्रों का जल स्तर बढ़ रहा है। बेमौसम बरसात और हद से ज्यादा बर्फ पड़ना अच्छे संकेत नहीं हैं। इस रिपोर्ट ने सम्पूर्ण विश्व को दुविधा में डाल दिया है। सब के सब भविष्य को लेकर चिन्तित नजर आ रहे हैं। इस विषय पर औधोगिक देशों का रवैया अभी भी ढुल-मुल ही बना हुआ है।

बान की मून ने अपने कार्यकाल में अमेरिका से भी आग्रह किया था कि वह ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को कम करने के लिए सम्पूर्ण विश्व की अगुवाई करे लेकिन अमेरिका क्योटो संधि तक पर सहमत नहीं हुआ, जबकि दुनिया में कुल उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैसों का एक चौथाई अकेले अमेरिका उत्सर्जन करता है। अमेरिका अपने व्यापारिक हितों पर तनिक भी आंच नहीं आने देना चाहता है। अमेरिका कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन के अधिकार अफ्रीकी देशों से पैसे देकर खरीदना चाहता है लेकिन अपने यहां कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा में कमी नहीं लाना चाहता। ऐसे में मौसम परिवर्तन की समस्या को लेकर डोनाल्ड ट्रम्प का बेपरवाह रूख अमेरिका को निरंकुश बना सकता है जिसके परिणाम अच्छे नहीं होंगें।

नोबल पुरूस्कार विजेता वांगरी मथाई का यह कथन कि जो भी देश क्योटो संधि से बाहर हैं वे अपनी अति उपभोक्तावाद की शैली को बदलना नहीं चाहते सही है क्योंकि वातावरण में हमारे बदलते रहन-सहन व उपभोक्तावाद के कारण ही अधिक मात्रा में ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित हो रही हैं। जिस कारण से जलवायु में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं। अगर दुनिया के तथाकथित विकसित देशों द्वारा अपने रवैये में बदलाव नहीं लाया गया तो पृथ्वी पर तबाही तय है। इस तबाही को कुछ हद तक सभी देश महसूस भी करने लगे हैं तथा भविष्य की तबाही का आइना हॉलीवुड फिल्म “द डे आफ्टर टूमारो” के माध्यम से दुनिया को परोसा भी गया। गर्मी-सर्दी का बिगड़ता स्वरूप रोज-रोज आते समुद्री तूफान किलोमीटर की दूरी तक पीछे खिसक चुके ग्लेशियर मैदानी क्षेत्रों के तपमान का माइनस में जाना आदि ये सब कुछ बुरे दौर का आगाज है।

विश्व का जो भी बडा आयोजन आज हो रहा है उसमें मौसम परिवर्तन को रोकने की बात कही जा रही है। यहां तक कि आइफा भी इसके लिए आगे आया है। सार्क के सम्मेलनों में भी इस पर चर्चा की जाने लगी है। वर्ष 2002 में काठमांडू में हुए सार्क सम्मेलन में मालदीव के राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम ने अपनी चिंता प्रकट करते हुए कहा था कि अगर धरती का तापमान इसी तेजी से बढता रहा तो मालदीव जैसे द्वीप शीघ्र ही समुद्र में समा जाएंगे। उनकी यह चिंता उन देशों व द्वीपों पर भी लागू होती है जोकि समुद्र के किनारों या उसके बीच में स्थित हैं।

वर्ष 2002 में ही जलवायु परिवर्तन पर दिल्ली में हुए एक सम्मेलन में जो घोषणापत्र जारी हुआ था उसमें मौजूद 186 देशों में से अधिकतर देश इस बात पर सहमत थे कि ग्रीन हाउस गैसों में कमी लाई जानी चाहिए। लेकिन यूरोपीय संघ कनाडा व जापान जैसे देश इससे नाखुश थे। इस सम्मेलन में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई का यह कहना कि जो देश अधिक प्रदूषण फैलाते हैं, उन्हें प्रदूषण रोकने के लिए अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए भी इन देशों को चुभ गया था। तथाकथित विकसित व औधोगिक देश अपने विकास में किसी भी प्रकार का रोडा नहीं चाहते हैं। वे अपनी मर्जी के मालिक बने हुए हैं।

कोटावाइस के सम्मेलन में देखना होगा कि अमेरिका का रूख क्या रहा है। अगर अमेरिका अपने रूख में कुछ बदलाव करता है तो सम्मेलन के परिणाम अच्छे निकल सकते हैं लेकिन अगर अमेरिका अपनी हठधर्मिता पर अड़ा रहा तो यह सम्मेलन भी विवाद की भेट चढ़ सकता है। ऐसे कठिन समय में दुनिया के अगवा देश के प्रमुख डोलाल्ड ट्रम्प ने अगर इस विषय पर अपनी नीति में बदलाव नहीं किया तो दुनिया में अव्यवस्था होनी तय है और फिर दुनिया में बहस एक नए सिरे से प्रारम्भ होगी। उस बहस के नतीजे क्या होंगे अभी उसका आंकलन करना कठिन है लेकिन इतना तय है कि पर्यावरण के लिए परिणाम अच्छे नहीं होंगे और दुनिया एक नए सिरे से दो धड़ों में बंटी दिखेगी। बीमारी को अगर नजर अंदाज किया जाएगा तो तय है कि वह बढ़कर नासूर बनेगी ही।


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दाहा नदी - लुप्त होने की कगार पर है सीवान जिले की जीवनरेखा, संरक्षण के प्रयास जरुरी

विगत तीन दशकों से प्रदूषण की मार झेल रही बाणेश्वरी यानि दाहा नदी की कहानी भी देश की बहुत सी छोटी नदियों की ही तरह है, जो कभी अपनी अविरल प्रव...

फल्गु नदी - अतिक्रमण और प्रदूषण की मार झेल रही है आस्था की प्रतीक रही फल्गु नदी

फल्गु नदी - अतिक्रमण और प्रदूषण की मार झेल रही है आस्था की प्रतीक रही फल्गु नदी

ऐतिहासिक फल्गु नदी, जो हिन्दुओं के लिए आस्था का प्रमुख केंद्र बनकर पवित्र गया नगरी में बहती है, आज प्रदूषण और अतिक्रमण के चलते पूरी तरह सूख ...

भैंसी नदी -  विगत एक दशक से सूखी पड़ी है गोमती की यह सहायक

भैंसी नदी - विगत एक दशक से सूखी पड़ी है गोमती की यह सहायक

नदियां, जो महज पानी ढोने वाला मार्ग ही नहीं हैं, बल्कि इनके किनारे समस्त इतिहास, समग्र विरासत और तहजीब के किस्से समाये होते हैं. ऋग्वेद के अ...

प्रदूषण कर रहा है हमारे वायु, आहार और जल को विषाक्त - माइक्रोफारेस्ट बनाकर धरती को दे सकते हैं पुनर्जीवन

प्रदूषण कर रहा है हमारे वायु, आहार और जल को विषाक्त - माइक्रोफारेस्ट बनाकर धरती को दे सकते हैं पुनर्जीवन

प्रदूषित पर्यावरण दुनिया के लिए समस्या बनता जा रहा है। इससे निपटने के लिए सरकारें नई-नई पॉलिसी ला रही हैं। जिसमें पौधरोपण, सिंगल यूज्ड प्लास...

पानी की कहानी - मर रही हैं हमारी बारहमासी नदियां, पारिस्थितिक और सांस्कृतिक संवर्धन जरुरी

पानी की कहानी - मर रही हैं हमारी बारहमासी नदियां, पारिस्थितिक और सांस्कृतिक संवर्धन जरुरी

मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र के साथ अत्यधिक छेड़खानी ने भारत की हर नदी के प्राकृतिक परिदृश्य, उसके स्वरूप और प्रवाह को प्रभावित किया है। प...

प्राकृतिक जल स्त्रोतों के लिए धीमा जहर है प्लास्टिक – समय रहते बचाव जरुरी

प्राकृतिक जल स्त्रोतों के लिए धीमा जहर है प्लास्टिक – समय रहते बचाव जरुरी

तमाम विश्व आज प्लास्टिक की मार से कराह रहा है। अमेरिका जैसा विकसित देश हो या भारत जैसा विकासशील सभी प्लास्टिक के उपयोग से बढ़ने वाली दुश्वार...

पानी की कहानी - गाज़ियाबाद, गौतमबुद्धनगर और सहारनपुर जिले बना रहे हैं हिंडन को बीमार

पानी की कहानी - गाज़ियाबाद, गौतमबुद्धनगर और सहारनपुर जिले बना रहे हैं हिंडन को बीमार

जिन जिलों को वर्षों से हिंडन अपने जल, जैविक विविधता से पोषित करती आ रही थी, आज वही जिले हिंडन की बदहाली के जिम्मेदार बने हुए हैं. हाल ही में...

पानी की कहानी- मानक से अधिक हो रहा कीटनाशक का इस्तेमाल, नाले के जहरीले पानी से 25 भैंसो की मौत

पानी की कहानी- मानक से अधिक हो रहा कीटनाशक का इस्तेमाल, नाले के जहरीले पानी से 25 भैंसो की मौत

दूषित पानी का जहर सिर्फ मनुष्यों को ही बीमार नहीं कर रहा बल्कि अब जानवर भी इसके शिकार हो रहे हैं. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के चिनहट औद्य...

पानी की कहानी- यमुना के पश्चिमी तट के बाद पूर्वी तट का होगा सौन्दर्यीकरण

पानी की कहानी- यमुना के पश्चिमी तट के बाद पूर्वी तट का होगा सौन्दर्यीकरण

दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) द्वारा यमुना नदी के पश्चिमी तट का सफलतापूर्वक कायाकल्प कर दिया गया है. प्राधिकरण ने नदी के पूर्वी तट के सौन्...

पानी की कहानी - गायब हो रहा है गोमुख ग्लेशियर, खतरे में गंगा का अस्तित्व

पानी की कहानी - गायब हो रहा है गोमुख ग्लेशियर, खतरे में गंगा का अस्तित्व

भारत की प्रमुख व पवित्रतम मानी जाने वाली गंगा नदी एक तरफ जहां प्रदूषण का विकराल दंश झेल रही है, वहीं दूसरी ओर इसकी जलधारा को स्त्रोत देने वा...

पानी की कहानी - मनरेगा फंड से होगा नदियों का पुनर्रूद्धार

पानी की कहानी - मनरेगा फंड से होगा नदियों का पुनर्रूद्धार

पवित्र नदियों में बढ़ते प्रदूषण की रोकथाम के लिए केन्द्र सरकार के साथ ही उत्तर- प्रदेश सरकार द्वारा भी लगातार प्रयास किए जा रहे हैं, हालांकि...

गगास नदी

गगास नदी

संक्षिप्त परिचय –उत्तराखण्ड की पहाड़ी नदियों में से एक गगास नदी राज्य में बहने वाली एक लघु जलधारा है. यह एक ऐसी नदी है, जिसका उद्गम दो स्थान...

विनोद नदी

विनोद नदी

संक्षिप्त परिचय –विनोद नदी उत्तर भारत की छोटी नदियों में से एक है. यह उत्तराखण्ड राज्य में प्रवाहित होती है. विनोद नदी एक पहाड़ी नदी है, जिस...

दामोदर नदी

दामोदर नदी

संक्षिप्त नदी –पश्चिमी भारत की नदियों में से एक दामोदर नदी एक छोटी जलधारा के रूप में बहती है. यह नदी मुख्यतः झारखंड व पश्चिम बंगाल राज्य के ...

सबरी नदी

सबरी नदी

संक्षिप्त परिचय –सबरी नदी दक्षिण – पश्चिमी भारत में बहने वाली प्रमुख नदियों में से एक है. नदी का उद्गम उड़ीसा राज्य में सिंकाराम की पहाड़ियो...

हसदो नदी

हसदो नदी

संक्षिप्त परिचय -हसदो नदी छत्तीसगढ़ राज्य में बहने वाली प्रमुख नदियों में से एक है. इसे ‘हसदेव’ नदी के नाम से भी जानते हैं. नदी का उद्गम कोर...

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जल पर संकट सम्पूर्ण मानव प्रजाति, वर्षों पुरानी सभ्यता एवं संस्कृति पर भी एक विकट संकट है. जल संकट की समस्या को लेकर विभिन्न प्रकृति प्रेमी, पर्यावरणविद एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता समस्याओं की जड़ तक जाकर उनके उचित समाधानों को खोजने और ज़मीनी स्तर पर उनके क्रियान्वन को दस्तावेज़ित करने का प्रयास इस पोर्टल के माध्यम से कर रहे हैं. कृपया हमसें जुड़े एवं प्रासंगिक अपडेट प्राप्त करने हेतु अपना नाम और ईमेल भरें. 

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